डॉ. मनीष कुमार जैसल।
27 जून 1967 याद हैं आपको ? इज़राइल से पेरिस जाने वाली फ़्लाइट को एथेंस से फ़्यूल लेने के बाद अगवा कर पहले लीबिया फिर युगांडा ले जाया गया था। चूंकि अफ़्रीकन महाद्वीप के अधिकतर देश इज़राइल से अपनी दुश्मनी रखते हैं और उसमें युगांडा का तानाशाह ईदी अमीन भी मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए, इज़राइल से बदला लेने को तैयार था। युगांडा के एंतबे ऐयरपोर्ट में 2 फ़िलिस्तीनी और 2 जर्मन आतंकी द्वारा अगवा किए गए एक प्लेन में सैकड़ों यात्री मौजूद थे। जिनमें यहूदी और अन्य धर्मों की बड़ी संख्या थी। यह दुनिया में घट रही उन दिनों की सबसे बड़ी घटना थी।
23 मई, 1979 को इज़राइली फ़िल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, मेनाहम गोलन द्वारा निर्देशित फ़िल्म ऑपरेशन थंडरबोल्ट एक साथ हिब्रू, अरबी, जर्मन, फ़्रेंच, स्पैनिश और अंग्रेज़ी भाषा में रिलीज़ की गयी। फ़िल्म की पूरी पटकथा उसी घटना पर आधारित है जो सन 27 जून 1967 से लेकर 4 जुलाई 1967 तक इज़राइल और युगांडा में घटी। फ़िल्म का प्रमुख किरदार फ़ील्ड कमांडर योनातन नेतन्याहू पर केंद्रित हैं उसे देखना फ़िल्म दर्शक को सुखद अनुभूति देता है। योनातन नेतन्याहू आज के इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भाई थे।
इज़राइल अपने इरादों का पक्का रहा है इसका प्रमाण यह ऑपरेशन है। अगवा किए गए आतंकियों द्वारा मांगी गयी मांगों पर ध्यान न देते हुए अपने खूफ़िया तंत्र मोसाद की मदद से युगांडा जाकर अपने यात्रियों को बचा लाया। जिसकी चर्चा दुनिया के भिन्न देशों में आज भी होती है। इस ऑपरेशन से फ़िलिस्तीन के साथ साथ युगांडा और अन्य अफ़्रीकी देशों को भी संदेश गया कि इज़राइल से टकराने वाले का अंजाम बुरा ही होगा। युगांडा और इज़राइल के बीच चले इस संघर्ष को ऑपरेशन थंडरबोल्ट फ़िल्म में बख़ूबी देखा जा सकता है।
इज़राइल के पक्के इरादों की एक कहानी और भी दुनिया भर में प्रचिलित है। इज़राइल अपने दुश्मन देशों से घिरा हुआ है शायद यही वजह हैं कि यहां के बजट का बड़ा हिस्सा यानी अरबों रुपए खूफ़िया एजेंसी मोसाद के रिसर्च एंड डेवलपमेंट के साथ इसे हाईटेक करने में ख़र्च होते हैं। जिसका काम इज़राइल के दुश्मनों और उनके इरादों को ध्वस्त करना हैं।
1972 में जर्मनी में हुए म्यूनिक ओलम्पिक तो आपको याद होंगे। 5 सितम्बर 1972 को इज़राइली इतिहास में वो घटना घटी जिसपर आज भी पुरी दुनिया दांतो तले उंगली दबाती है। म्यूनिख के खेल गांव में ठहरे हुए 11 इज़राइली खिलाड़ियों को फ़िलिस्तीनी आतंकियों ने बंधक बना लिया। इसमें अंजाने में कनाडा ने खिलाड़ियों ने भी साथ दिया था। फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन के आतंकियों के साथ खिलाड़ियों की हुई शुरुआती झड़प में 2 इज़राइली खिलाड़ी मारे गए।
आतंकियों ने तब इज़राइल की सरकार से 234 फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन के सदस्यों को विभिन्न इज़राइली जेलों से रिहा होने की शर्त रखी, लेकिन इज़राइल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर ने ऐसा करने से बिल्कुल मना किया। हालांकि जर्मनी से कमांडों कार्यवाही की मांग इज़राइल ने की थी लेकिन ओलम्पिक के कारणों से जर्मनी ने नकार दिया।
उधर आतंकियों ने इज़राइल के ने बदलने वाले इरादों को देखते हुए अपनी शर्त ही बदल दी। और जर्मनी से खिलाड़ियों सहित ख़ुद के ऐयरपोर्ट जाने की माँग रखी। जिस पर जर्मनी ने हामी भरी। और अपने सैनिकों से उन आतंकियों के ख़ात्मे का खूफ़िया प्लान बनाया। जो सफल रहा लेकिन इसमें इज़राइल के सभी खिलाड़ी मारे गए।
अब इज़राइल भला शांत कैसे रहता। प्रधानमंत्री ने अपनी एजेंसी मोसाद को इस कृत्य से जुड़े सभी लोगों के ख़ात्मे का प्रोजेक्ट दिया। जिसे खुदा का ख़ौफ़ यानी थ्रेड ऑफ गाड नाम दिया। मोसाद ने अपनी जवाबी कार्यवाही महज़ 2 दिन बाद ही शुरू कर दी। 7 सितम्बर 1972 को सीरिया और लेबनान के 10 कैंप बमबारी करके तबाह कर दिया। लगभग 200 लोग मारे गए। लेकिन मास्टर माइंड अभी ज़िंदा थे और यूरोप के अलग अलग देशों में बैठे थे।
इसके बाद रोम में बैठा अब्दुल ज़ेब्रा, फ़्रान्स के पेरिस में बैठा महमूद अंसारी, और बहरूत के होटल में छिपा सालेम को भी मोसाद ने मार दिया। 11 इज़राइली खिलाड़ियों की मौत का बदला लेने में मोसाद को 20 साल तक अभियान चलाना पड़ा लेकिन उन्होंने एक एक करके सबको ख़त्म किया। लेकिन आख़िरी में मोरक्कों में चल रहे अभियान के तहत मोसाद से जो ग़लती हुई उसकी सज़ा उसे अंतराष्ट्रीय मंचों पर झेलनी पड़ी।
मज़बूत इरादों वाले इज़राइल के लिए दुश्मन कितना भी बड़ा क्यों न हो वो लड़ता अपनी पूरी ऊर्जा के साथ है ऐसा इतिहास में दर्ज घटनाओं से मालूम पड़ता हैं। इज़राइल एक बार फिर पूरी दुनिया में चर्चा के केंद्र में हैं। सबसे पहले तो उसने ख़ुद को कोरोना फ़्री देश घोषित किया। उसके बाद फ़िलिस्तीन के साथ हुए 11 दिनी संघर्ष को दुनिया घरों में कोरोना के प्रकोप से क़ैद सी होकर देख रही हैं। जहाँ हमें इज़राइल से कोरोना कैसे ख़त्म हुआ इस पर बात करनी थी वहाँ फ़िलिस्तीन के साथ उसके विवाद पर बीच बचाव करना पड़ रहा हैं।
भारत के ट्वीटर हैंडल्स और फ़ेसबुक पर फ़िलिस्तीन और इज़राइल के लिए खड़े लोगों के चलते भारत में भी दो गुट बनते दिख रहे हैं। इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच नफ़रती दीवार उन्हीं की खड़ी की हुई हैं जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच खड़ी की। यानी ब्रिटेन। 1947 में जहाँ भारत पाक का बँटवारा हुआ वहीं 1948 में इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच एक ऐसा बँटवारा हुआ जिसके चलते संघर्ष आज भी थमने का नाम नही लेता। समय समय पर संघर्ष विराम हुए लेकिन इसका नुक़सान फ़िलिस्तीन ही लगातार उठा रहा है।
1948 में द बेलफ़्लोर डिक्लरेसन के तहत इज़राइल और फ़िलिस्तीन बनाए गए। जिसमें यूएन ने 48 फ़ीसदी ज़मीन फ़िलिस्तीन, 44 फ़ीसदी इज़राइल और 8 फ़ीसदी जेरुसलम के लिए निर्धारित किया। दरअसल जेरुसलम ही बवाल की असल जड़ हैं जहाँ तीन धर्मों के पवित्र तीर्थ हैं। ईसा मसीह का जन्म स्थान, यहूदियों का मूल स्थान और मुस्लिम समुदाय की तीसरी पवित्र मस्जिद अल-अक्सा इसी धरती पर है। हालांकि 1948 के बाद से ही इज़राइल ने फ़िलिस्तीन के साथ 1956, 1967, 1973 और 1982 में ऐसे ही संघर्ष करते करते 48 फ़ीसदी से 12 फ़ीसदी ज़मीन पर समेट चुका है। उसका अगला इरादा पूरी ज़मीन पर इज़राइल का परचम लहराने का हैं। जिसके लिए ही पूरा इज़राइल और फ़िलिस्तीन जल रहा है।
अब यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 150 साल पहले फ़िलिस्तीन से ख़रीदी गयी शेख ज़र्रा की ज़मीन ख़ाली करने पर इज़राइली सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर संघर्ष क्यों हुआ और इस पर दुनिया के अन्य देश भी इज़राइल के विरोध में क्यों हैं? ऐसे में उन्हें तुर्की के सुल्तान मुहम्मद अल फ़तह द्वारा 400 साल पहले खरीदी गयी हाजिया सोफ़िया मस्जिद का भी ज़िक्र कर लेना चाहिए। क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वह चर्च की ज़मीन थी। हालांकि युद्ध के बाद इसमें म्यूज़ियम बनवा दिया गया। और अब तुर्की फिर से उसकी मांग की तर्ज पर कर रहे हैं कि यह ज़मीन उन्होंने 400 साल पहले ख़रीदी थी। वैसे ही जैसे इज़राइल ने 150 साल पहले फ़िलिस्तीन से ख़रीदी थी।
90 लाख के क़रीब जनसंख्या वाले देश इज़राइल में 70 लाख यहूदी रहते हैं वहीं बाक़ी मुस्लिम हैं। इन्हीं मुस्लिमों के लिए फ़िलिस्तीन में हमास नामक संस्था (जिसे कई देश आतंकवादी मानते हैं कई नही) को जड़ से ख़त्म करने का इरादा लेकर ही इस बार इज़राइल ने युद्ध किया था हालांकि शुरुआत गाज़ा पट्टी से हमास ने की। शुरुआत के लिए इज़राइल का हमास को उकसाना पहली बार नही हैं, यह उसकी पुरानी आदत रही है।
लेकिन छोटे मोटे हथगोलों और राकेट से इज़राइल जैसे देश जहां आयरन डोम जैसे आधुनिक हथियार और रडार सिस्टम हैं वहां कैसे हमास ख़ुद को सामने रख पाएगा। हमास ने हथियार डाल दिए। लेकिन दो शर्त रखी। शेख़ ज़र्रा में रह रहे 200 परिवारों को ना हटाया जाए और अल-अक्सा मस्जिद में फ़ोर्स ना घुसे। लेकिन आपको पहले ही पता है कि इज़राइल किसी भी आतंकी संगठन से किसी भी तरह की बातचीत नही करती। और उसने वहाँ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फिर से हमास की ऐसी हरकत पर जवाब देने की बात कही है।
अब समझिए दुनिया के कौन देश किसके साथ खड़े हैं। हमास को चीन और पाकिस्तान आतंकी संगठन ही नही मानता। तो रूस इज़राइल और फ़िलिस्तीन दोनों को आत्मरक्षा के अधिकार की वकालत करता है। अमेरिका और 25 अन्य देश इज़राइल के साथ खुल कर खड़े हुए हैं। वहीं तुर्की के साथ अन्य अरब देश फ़िलिस्तीन में ख़ुद की सेना के निर्माण में सहायता करने का प्रस्ताव पूर्व में दे चुके हैं। 57 देशों का इस्लामिक कारपोरेशन चाहता तो हैं फ़िलिस्तीन की मदद करना, लेकिन अमेरिका और अन्य देशों के कारण कभी खुल कर सामने आ पाने की स्थिति में वो नही रहता। हालांकि अगर ये हुआ तो इज़राइल पर तुर्की के एस 400 जैसे रोकेट भारी पड़ सकते हैं।
लेकिन इन मिडिल ईस्ट के देशों को अमेरिका ग्रेटर इज़राइल के प्लान से अवगत कराता रहता है। वहीं प्लान जिसमें इज़राइल का इरादा इजिप्ट, सऊदी अरब, क़तर, इराक़, सीरिया जैसे देशों को इज़राइल में शामिल कर ग्रेटर इज़राइल बनाना हैं। इसकी कोशिशें भी इज़राइल करता रहता हैं।
सीधे तौर पर देखा जाए तो इज़राइल अपनी चाह हैं तो राह हैं की नीति पर चला है, भले ही रास्ते ग़लत हो। लेकिन दुनिया के अन्य देशों ने भी वहीं रास्ते अपनाएँ हैं चाहे चीन ने अक्साई चीन को क़ब्ज़ा कर या फिर पाकिस्तान ने पीओके पर क़ब्ज़ा करके। चीन का तिब्बत को हड़पना और नेपाल, भूटान, लद्दाक और अब अरुणांचल को लेकर कही जाने वाली बातें ऐसी ही श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
अब भारत को चाह कर भी इज़राइल पर खुल के समर्थन करने का समय नही हैं क्योंकि 18 फ़ीसदी से ज़्यादा व्यवसाय हम मिडिल ईस्ट से कर रहे हैं वहीं इज़राइल से मात्र 1 फ़ीसदी के क़रीब। ऐसे में ज़मीनी विवाद पर भारत का सीधा बोलना ख़ुद के ज़मीनी विवाद पर उल्टा पड़ सकता है। हमें संयम से काम लेना चाहिए जो हमने अब तक लिया भी है। हर देश शांति और अमन चैन चाहता है।
मिस्र के प्रधानमंत्री अनवर सादत ने इज़राइल और इजिप्ट के रिश्ते में शांति लाने का प्रयास किया, वहीं फ़िलिस्तीन के यासिर अराफ़ात को दुनिया में शांति का एक प्रारूप की तरह पेश किया गया। ख़ुद इज़राइल के पूर्व प्रधानमंत्री जितिज रोबिन इज़राइल की तत्कालीन स्थिति को लेकर ख़ुश थे। आपको आश्चर्य होगा तीनों को शांति का नोबल पुरस्कार मिला लेकिन बाद में तीनों की मौतें एक हादसे की तरह हुई। हालांकि इस पर भी संशय रहता हैं। इन तीनों की कोशिशें आज पानी मेन दिख रही हैं। इज़राइल और फ़िलिस्तीन का विवाद भविष्य में शायद ही समाप्त हो।
भारत मौजूदा इज़राइली और फ़िलिस्तीन विवाद पर ख़ुद को किसी भी तरह फंसाने की स्थिति में नही है। यही होना भी चाहिए। वर्ना चीन का नाइन डैश लाइन का सपना साकार होगा। लाल सागर मेन खुलकर क़ब्ज़ा करके पेट्रोल का दोहन करने लगेगा। वह खुले तौर पर इज़राइल के पद चिन्हों पर चलेगा और भारत पर दबाव बनाता रहेगा। जिससे चलते भारत और जापान के रिश्ते भी खराब हो सकते हैं।
11 दिनों तक चले इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच संघर्ष अब थम चुका है लेकिन इस अंतरराष्ट्रीय घटना के मायने दूरगामी हैं। इज़राइल ने ट्वीट करके जिन 25 देशों का धन्यवाद दिया हैं उसमें भारत नहीं है। और अगर भारत भविष्य में इस्लामिक कोरपोरेशन के 57 देशों के सदस्यों को नाराज़ करके इज़राइल के साथ खुला समर्थन भी करता हैं तो 18 फ़ीसदी व्यवसाय के साथ उसे यूएन में 136 सदस्यों के बहुमत के बिना वीटो पावर कैसे मिल पाएगा ?
हालांकि, भारत के राजदूत टीएस त्रिमूर्ति का एक बयान में कहा कि इंडिया स्ट्रांगली सपोर्ट फ़िलिस्तीन एंड टू स्टेट साल्यूशन। ऐसा ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी भी कहा करते थे ‘इज़राइल को फ़िलिस्तीन की ज़मीन वापस करनी होगी’। चूंकि ट्विटर और फ़ेसबुक उन दिनों नही था वरना अटल जी भी घिर गए होते।
हमें इज़राइल और फ़िलिस्तीन को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि इज़राइल में नई सरकार का गठन होना हैं और इस आतंकी घटना का असर चुनाव पर ज़रूर पड़ेगा जैसे बालाकोट और उरी का भारत में पड़ा था। भारत के नागरिक पत्रकार और नेता ‘सिंगापुर वैरियंट’ वायरस पर विदेश नीति और प्रोटोकोल का पाठ पढ़ाने लगते हैं लेकिन वहीं फ़िलिस्तीनी के साथ खड़े होने में गर्व का अनुभव होता है। यहूदियों पर ज़ुल्म हुए हैं तो मुस्लिमों पर भी हो रहे हैं। अब तो हिंदुओ पर भी लगातार अत्याचार की ख़बरें दुनिया भर के देशों के साथ भारत में भी आने लगी है।
इंसानियत को एक ही चश्में से देखने का हुनर जिस दिन दुनिया को आ जाएगा उस दिन ये सारी दुनिया ख़ूबसूरत लगने लगेगी। नही तो तालिबानियों द्वारा बुद्ध की प्रतिमा के तोड़ फोड़ को भी हम इज़राइली फ़िलिस्तीनी संघर्ष वाले चश्मे के नम्बर से देखने पर सही ठहरा देंगें। अजरबेजान और अरमेनिया के बीच के संघर्ष को आप सही मानने लगेंगे।
फ़िलहाल अगर दुनिया की बेहतरीन सर्जिकल स्ट्राइक वाली फ़िल्में देखने का शौक़ हैं तो आप इज़राइल की ऑपरेशन थंडरबोल्ट को देख लें वहाँ फ़िल्म की स्टोरी में तनाव हैं लेकिन देखने के बाद मन में नही होगा। इज़राइल के इरादों को सबूतों के साथ पेश करती हैं यह फ़िल्म।
(लेखक मंदसौर विश्वविद्यालय, मंदसौर में पत्रकारिता विभाग-प्रमुख तथा सहायक प्रोफेसर हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)