पेरिस में हुए धमाकों का दंश फ्रांस और यूरोप को ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में पूरे विश्व को सालता रहेगा। इसके जख्म तो शायद कभी भर भी जाएं, पर इसका असर लंबे समय तक बना रहेगा। दुनिया भर में कुख्यात आइएस यानी इस्लामिक स्टेट के दुर्दांत इरादों से बेखबर फ्रांस के लोग अपने सप्ताहांत के कार्यक्रमों में जुटे थे, तभी मुंबई हमलों और धमाकों की तर्ज पर आतंकवादियों ने छह जगहों पर एक साथ हमला करके पूरी दुनिया को झकझोर दिया। अपनी क्रूरता की नुमाइश के लिए बदनाम आतंकी संगठन आइएस ने उन धमाकों की जिम्मेदारी लेने में जरा भी देर नहीं लगाई और उसे अपने कुख्यात कारनामों की फेहरिस्त में डाल लिया। कहना न होगा कि यह किसी पत्रकार या किसी बंधक को वीडियो कैमरे के सामने जिबह कर देने की मानिंद था।

चाहे सीरिया या आइएस के किसी भी ऐसे गुप्त ठिकाने से की गई आतंकियों की बर्बरता और उसके बाद के विजयघोष हों या पेरिस के फुटबॉल स्टेडियम या कंसर्ट हॉल में लगते ‘अल्ला-हो-अकबर’ के नारे, उनका नतीजा एक ही है। जमीन पर बेकसूर लोगों का खून और बाकी बचे उनके नातेदारों के हिस्से समूची जिंदगी का दर्द। यह दर्द जितना ज्यादा होगा, आतंकियों का सुकून उतना ही ज्यादा। इससे उपजी अलगाव की आग जितनी सुलगे, चरमपंथियों की उतनी ही बड़ी कामयाबी। इन घटनाओं को अंजाम देते हुए चरमपंथियों के जितने भी अपने साथी मरे, उनकी मौत संगठन की शहादत सूची में उतनी ही महिमामंडित। सुरक्षा बलों के हाथों जितने आतंकी मरेंगे, बदले की भावना उतनी ही ज्यादा परवान चढ़ेगी। एक हमले की कामयाबी अगले ऐसे कई धमाकों की रणनीति की बुनियाद भी खड़ी कर देती है।

पूरी दुनिया में आतंकी संगठनों का यही तरीका और उसका ऐसा ही अंजाम है। और फ्रांस में भी यही हुआ। इतना बड़ा हमला, देश की सुरक्षा पर इतना बड़ा आघात। निशाने पर राष्ट्रपति ओलांद और कई बेकसूर। जिम्मेदारी लेने को तैयार संगठन। इसके बाद फ्रांस को भी कमर कसनी पड़ी, आतंकी हमलों की जांच का दायरा पूरे यूरोप तक फैला और पेरिस के अंदर ही हमलों का सरगना मारा गया। जाहिर है कि एक साजिश के सरगना को खत्म करने से ही फ्रांस की चिंता नहीं खत्म होने वाली थी। फ्रांस के प्रधानमंत्री मैन्युअल वाल्स आगाह कर चुके हैं कि देश पर और भी हमले हो सकते हैं। इसके साथ ही उन्होंने रायायनिक और जैविक हमलों का अंदेशा भी जताया। आतंकी हमलों के खतरे को देखते हुए देश में तीन महीने का आपातकाल भी घोषित कर दिया गया।

पेरिस हमलों ने पश्चिमी देशों को एक बार फिर पैगाम दिया है कि विरोधाभास की राजनीति को लेकर वे सचेत हो जाएं। इन ताजा आतंकी हमलों के बाद दुनिया भर के मुसलमानों के बीच फिर से एक खौफ का साया पसरा कि इन आततायियों का गुस्सा कहीं हम पर न फूटे। फ्रांस का इतिहास रहा है कि यहां सदियों से ईसाई, मुसलमान और यहूदी मिल-जुल कर रह रहे हैं। यहां नागरिक समानता की कोशिश के तहत ही बुर्के पर प्रतिबंध लगाया गया था, जिसके कारण यह देश पूरी दुनिया के कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गया था। जब इस साल के शुरू में यहां की मशहूर व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो पर हमला हुआ तो इस देश की एकजुटता को देखते हुए पूरी दुनिया के तरक्कीपसंद लोगों को इसके साथ कहना पड़ा था- हम सब शार्ली। और इस बार भी फ्रांस से ऐसी ही उम्मीद है।

लेकिन पेरिस पर ताजा हमलों के बाद पश्चिमी देशों के सुर बदल रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा, जो हमेशा से अपनी मुसलमान पहचान के कारण निशाने पर रहे हैं, ने मुसलिम देशों के हुक्मरानों से पूछा कि वे तरक्की की राह में आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं। वहीं रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन ने यह कह कर नई बहस छेड़ दी कि विकसित पश्चिमी मुल्क आइएस के लड़ाकों की मदद कर रहे हैं। उन्होंने जी-20 के देशों पर भी निशाना साधते हुए आरोप लगाए कि इसमें से भी कई देश चरमपंथियों को मदद पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही फ्रांस, अमेरिका और जर्मनी जैसे कई देशों ने शरणार्थियों को शक की नजर से देखना शुरू कर दिया है। इसकी वजह है पेरिस के एक हमलावर के शव के पास सीरियाई पासपोर्ट का मिलना।

इससे पहले तीन साल के बच्चे के समुद्र में तैरते शव ने शरणार्थियों की समस्या को लेकर पूरे यूरोप में बहस छेड़ दी थी। इन दिनों विस्थापित हुए लोगों को शरण देने के मसले पर जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने जो मानवतावादी रुख अपना रखा था, सबसे ज्यादा हमले इसी पर हो रहे हैं। पर सतर्कता और सावधानी के संकल्प के साथ मर्केल अभी भी अपने एजंडे से नहीं हटी हैं। जर्मनी के गृह मंत्री थॉमस डी मेइजर ने कह दिया है कि पेरिस में होने वाले आतंकवादी हमलों को यूरोप में बड़ी संख्या में आने वाले शरणार्थियों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

दरअसल, फासीवाद की त्रासद यादें जर्मनी पर गहरी हैं। पिछले कुछ दशकों से वह अपनी उदार छवि बनाने की कोशिश कर रहा है। अब वह उससे भटकने की गलती नहीं करेगा। जाहिर है, मर्केल अपनी नीतियों के साथ जिस तरह से डटी हुई हैं, वह उम्मीद की किरण है। लेकिन इस हमले के बाद यूरोप और अमेरिका में शरणार्थियों के लिए कई दरवाजे बंद कर दिए गए हैं। अमेरिका के भी बड़े नेता मुसलमानों के खिलाफ आग उगल रहे हैं। वहां राष्ट्रपति पद की रिपब्लिकन उम्मीदवारी के लिए प्रमुख दावेदार डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि वे देश को आतंकवाद से बचाने के लिए अमेरिका में मुसलिमों के डेटाबेस की व्यवस्था को निश्चित तौर पर लागू करेंगे। यूरोपीय देशों में भी इस बात पर हल्ला मचता रहा है कि शरणार्थियों को पनाह देना खून में मिलावट करना है। और अब यह शोर और भी तेज होगा तो वैश्विक शांति के हरकारे भी थोड़ा सहमेंगे।

बहरहाल, पुतिन ने जी-20 के देशों पर जो आरोप लगाया है, वह नया नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम को लेकर पश्चिमी देशों की गैरजिम्मेदाराना नीतियों की वजह से ही अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट का जन्म हुआ। पेरिस पर हुए आज के हमलों की बुनियाद में है 2003 में इराक पर हुआ अमेरिकी हमला। इस हमले के बाद पश्चिम एशिया कई गुटों में बंट गया था। पलटवार में सऊदी अरब, तुर्की, ईरान और कतर जैसे देशों ने भी अपनी अलग-अलग नीतियां बनार्इं। पश्चिमी देशों के आपसी टकराव ने फायदा आतंकवादी संगठनों का किया। इनमें से कई ने इस्लामिक स्टेट को अपने फायदे में देखा और उसकी ताकत बढ़ाने में जुट गए। अमेरिका और रूस का तनाव बढ़ने के साथ ही सीरिया में जेहादियों के पांव जमने लगे और अब वहां मजबूती से आइएस का काला झंडा लहरा रहा है। अब यही इस्लामिक स्टेट पश्चिमी देशों के बीच घुस कर भस्मासुर बन गया है।

पुतिन के आरोप और पश्चिमी देशों के स्वार्थ का इतिहास इस बात की तस्दीक करता है कि आइएस जैसा दुर्दांत संगठन सिर्फ धर्म के जज्बे से पैदा नहीं हुआ है। यह सवाल तो पूछा ही जाता रहा है कि अब तक तुर्की को यूरोपीय यूनियन से अलग क्यों रखा गया है? इसके अलावा, तेल की अर्थव्यवस्था का ‘जेहाद’, पश्चिमी देशों ने शुरू किया था, उन्हें तो उसकी जद में आना ही था। इराक पर हमले के बाद अमेरिका का यह साफ रुख था कि जो हमारे साथ नहीं, वह आतंकवादियों के साथ है। अब इसी सिरे से यह सवाल अमेरिका और यूरोपीय देशों के सामने आईने की तरह खड़ा हो गया है कि आइएस के इस हैसियत में सामने होने के लिए कौन-कौन जिम्मेदार है!

दरअसल, आज जिस तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, उस पर आधिपत्य जमाने के हथकंडे भी बढ़ रहे हैं। आधुनिक अर्थव्यवस्था की गाड़ी चलती है तेल से। और तेल के कुएं इस्लामी देशों के प्रभाव वाले इलाकों में रहे हैं। इसलिए शक्तिशाली देशों ने वहां अपना आधिपत्य जमाने के लिए कभी अल-कायदा तो कभी इस्लामिक स्टेट को शह दिया। फिर उसी अल-कायदा ने न्यूयार्क में ट्विन टावर गिराया, जिससे पूरी दुनिया हिल उठी और फिर ओबामा की सेना को पाकिस्तान में घुस कर उसामा बिन लादेन को मारना पड़ा।

जाहिर है, पेरिस पर हमले के बाद पश्चिमी देशों की चिंता और भी बढ़ गई है। चरमपंथ चरम पर है। गैरबराबरी और कई देशों के संसाधनों पर कब्जे की नीतियों से उपजा यह नासूर अब पश्चिमी समाज में भी कैंसर की तरह फैल रहा है। मध्यकाल के अंधियारे के बाद फ्रांस ने ही पूरी दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया था। और, आज आधुनिक काल में दशहतगर्द हमें फिर से अंधयुग में ले जाने की कोशिश में है। तारीखी गलतियों से सबक सीख कर आतंकवाद के खिलाफ ईमानदार लड़ाई हो, जिसमें धर्म के आधार पर भेदभाव न हो।

पेरिस पर हमलों के बाद जिस तरह ‘जंग जैसे हालात’ बने हैं उससे इस लड़ाई के गहराने के आसार ही दिख रहे हैं। फ्रांस ने सीरिया में आइएस के 35 ठिकानों को ध्वस्त कर दिया तो वहीं आइएस के आतंकवादी अब न्यूयार्क पर हमले की चेतावनी दे रहे हैं। सीरिया में शांति के लिए रूस और अमेरिका अपना-अपना फलसफा पेश करने में जुटे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने मनीला में अपनी चौधराहट दिखाते हुए कह दिया है कि सीरिया का गृहयुद्ध तब तक खत्म नहीं होगा जबतक बशर अल असद सत्ता नहीं छोड़ देते। वहीं, असद को सत्ता से बेदखल किए जाने का रूस कड़ा विरोध कर रहा है। वैश्विक शांति की राह पर पश्चिमी देशों के स्वार्थ का रोड़ा खड़ा है। इसे हटाए बिना आतंकवाद मुक्त विश्व का सपना देखना बेमानी होगा।

एक दृढ़ फ्रांस, एक एकीकृत फ्रांस, एक फ्रांस जो एक साथ मिलकर आगे आता है और एक फ्रांस जो आज भी खुद को लड़खड़ाने नहीं देगा। इस तबाही के साथ भावनाओं का एक अथाह सैलाब आया है। यह त्रासदी घृणित है क्योंकि यह वहशीपन है।… फ्रांसवा ओलोंद, फ्रांस के राष्ट्रपति

पश्चिमी यूरोप पर हुए बड़े हमले:

7 जनवरी, 2015 : पेरिस में व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के कार्यालय पर बंदूकधारी के हमले में 12 लोगों की मौत। अरब प्रायद्वीप के अलकायदा ने यह कहते हुए इस हमले की जिम्मेदारी ली कि यह शार्ली एब्दो के कार्टून का बदला है। कार्टून को इस्लाम की ईशनिंदा माना गया था।

24 मई, 2014 : ब्रूसेल्स के एक यहूदी संग्रहालय में कलाश्निकोव लेकर आए घुसपैठिए के हमले में चार लोगों की मौत। आरोपी सीरिया के आतंंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट से जुड़ा पूर्व फ्रांसीसी लड़ाका था।

22 मई, 2013 : लंदन की सड़क पर अलकायदा से प्रेरित दो चरमपंथियों ने ब्रिटिश सैनिक ली रिग्बी को दौड़ाया और उनकी हत्या कर दी।

मार्च, 2012: दक्षिण फ्रांस के टुलूज में अपना संबंध अलकायदा से बताने वाले एक बंदूकधारी ने तीन यहूदी बच्चों, एक यहूदी धर्मगुरु और तीन पैराट्रूपरों को मार डाला।

22 जुलाई, 2011 : ओस्लो में मुसलिम विरोधी चरमपंथी एंडीयर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक बम लगा दिया, नार्वे के उटोया द्वीप पर युवाओं के एक शिविर पर हमला किया और 77 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उनमें ज्यादातर किशोर थे।

2 नवंबर, 2011 : ईशनिंदा समझे जाने वाले कार्टून वाले कवर प्रकाशित करने पर व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के पेरिस कार्यालय में बम फेंका गया पर कोई हताहत नहीं।

7 जुलाई, 2005 : लंदन के तीन सबवे ट्रेनों और बस में अलकायदा प्रेरित चार आत्मघाती बम हमलावरों के हमले में 52 यात्रियों की जान चली गई।

11 मार्च, 2004 : मैड्रिड के अटोचा स्टेशन पर भीड़ भाड़ के समय ट्रेनों में बम हमले में 191 लोगों की मौत हो गई। यह यूरोप में भीषणतम आतंकवादी हमला था।

25 जुलाई, 1995 : पेरिस के सैंट माइक सबवे स्टेशन पर एक बम हमले में आठ लोगों की जान चली गई और करीब 150 लोग घायल हो गए। यह अल्जीरिया के जीआइए या आर्म्ड इस्लामिक ग्रुप के बम हमलों में एक था।