श्रीलंका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनावों में गोटाबाया राजपक्षा की जीत मिली है। इसके साथ ही उनका श्रीलंका का अगला राष्ट्रपति बनने का रास्ता साफ हो गया है। गोटाबाया राजपक्षा (70 वर्ष) श्रीलंका में लिट्टे के अलगाववादी आंदोलन के कुचलने के लिए जाने जाते हैं। पूर्व सैन्य अधिकारी गोटाबाया राजापक्षे श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षा के भाई हैं और उनके कार्यकाल में रक्षा सचिव भी रह चुके हैं। साल 2007 से लेकर साल 2009 तक गाटोबाया राजपक्षा ने लिट्टे (Liberation Tigers of Tamil Eelam) के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का नेतृत्व किया और इस कार्रवाई में लिट्टे के नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरण की मौत हो गई थी।
गोटाबाया राजपक्षा की छवि एक कठोर नेता की है और उन पर लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप भी लगे हैं। श्रीलंका की इस सिविल वॉर में हजारों लोगों की जान गई। इस लड़ाई के बाद श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहला बौद्ध समुदाय का वर्चस्व है, जिसे सिविल वॉर के दौरान कई सालों तक तमिल विद्रोहियों से चुनौती मिली थी।
माना जाता है कि श्रीलंका के बौद्ध कट्टरपंथी संगठन ‘बोदु बाला सेना’ को भी गोटाबाया राजपक्षा का समर्थन प्राप्त है। उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में मुस्लिमों के खिलाफ आंदोलनों में और साल 2014 के मुस्लिम विद्रोही दंगों में इस संगठन का अहम रोल रहा है। साल 2018 में कैंडी में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा में भी इस संगठन का नाम सामने आया था।
गोटाबाया राजपक्षा अमेरिकी नागरिक रह चुके हैं, लेकिन श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने अमेरिका की नागरिकता छोड़ दी है। महिंदा रापक्षा की सरकार में भी सरकार विरोधी लोगों के गायब होने और स्वतंत्र पत्रकारों पर हमले के मामले सामने आए थे।
भारत के नजरिए से देखें तो गोटाबाया राजपक्षा का श्रीलंका की सत्ता में आना थोड़ा परेशान कर सकता है। दरअसल महिंदा राजपक्षा की सरकार में श्रीलंका का झुकाव चीन की तरफ ज्यादा था। इस दौरान चीन ने श्रीलंका को भारी मात्रा में कर्ज दिया, जिससे यह द्वीपीय देश भारी कर्ज में डूब गया। इसके बाद चीन ने इस कर्ज के बदले श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को 99 साल के लिए लीज पर ले लिया। भारत की सुरक्षा के नजरिए से यह अच्छा नहीं है। अब एक बार फिर श्रीलंका मे राजपक्षा भाईयों का शासन आना भारत को चिंतित कर सकता है।