यूरोप का एक और देश दक्षिणपंथी लहर की चपेट में है। बेहद उदार और मानवीय मूल्यों के पैरोकार रहे स्वीडन में दक्षिणपंथियों की बढ़ती लोकप्रियता ने वहां रविवार को होने वाले चुनावों में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ा दी है। पिछले चुनावों में जिस धुर दक्षिणपंथी पार्टी स्वीडिश डेमोक्रेट्स को सिर्फ सात प्रतिशत वोट मिले, उसे इस बार 20 प्रतिशत लोगों का समर्थन मिल सकता है। देश की सियासत में आए इन बड़े बदलावों के कारण ही इस चुनाव को हाल के दशकों में स्वीडन का सबसे अहम चुनाव माना जा रहा है।

स्वीडिश सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता स्टेफान लोएवीन देश के प्रधानमंत्री हैं जो मध्य वामपंथी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं जबकि उन्हें चुनौती देने वाले मध्य दक्षिणपंथी गठबंधन के नेता हैं उल्फ क्रिस्टरसोन। लेकिन स्वीडिश राजनीति का उभरता सितारा हैं स्वीडन डेमोक्रेट के नेता जिम्मी एकेसोन जिनकी उम्र है 39 साल। हालांकि वह 2005 से स्वीडन डेमोक्रेट्स का नेतृत्व कर रहे हैं, लेकिन इस समय उनकी लोकप्रियता बुलंदियों को छू रही है। यूरोप के बाकी देशों की तरह, स्वीडन में भी दक्षिणपंथियों ने देश में बढ़ रही शरणार्थियों की संख्या को राजनीति हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है।

एक करोड़ की आबादी वाला स्वीडन स्कैंडेनेवियन इलाके का सबसे बड़ा देश है। वह दशकों से शरणार्थियों और प्रवासियों का खुले दिल से स्वागत करता रहा है। लेकिन 2015 के शरणार्थी संकट के दौरान जब एक साल में ही उसने 1.63 लाख शरणार्थियों को अपने यहां जगह दी, तो स्वीडन की सियासत में बदलाव की आहट सुनाई देने लगी। दरअसल यूरोप के किसी अन्य देश ने प्रति व्यक्ति इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थी नहीं लिए।

प्रधानमंत्री लोएवीन को मानना पड़ा कि स्वीडन इतनी बड़ी संख्या में आ रहे शरणार्थियों से नहीं निपट सकता है और देश की सीमाओं को लगभग बंद कर दिया गया। शरणार्थियों की संख्या बढ़ने से आम स्वीडिश लोगों में असुरक्षा की भावना घर करने लगी। शरणार्थियों की बस्तियों से बलात्कार, कार जलाने और गिरोहों के बीच होने वाली हिंसा ने उनकी चिंताओं को आधार दिया। कुछ लोगों को यह चिंता भी सताने लगी कि स्वीडन की सांस्कृतिक विरासत ही खो रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी स्वीडन को इस बात की मिसाल बता चुके हैं कि कैसे बड़ी संख्या में आ रहे शरणार्थी समाज में हिंसक अपराधों और असुरक्षा को लेकर आ रहे हैं।

स्वीडन की अर्थव्यवस्था मजबूत है और बेरोजगारी दर घट कर लगभग 6 प्रतिशत पर आ गई है। सरकार इसका श्रेय लेने की पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर उसे सवालों का सामना कर पड़ रहा है। दरअसल बहुत से लोग इन सभी मुद्दों को शरणार्थियों से जोड़ रहे हैं। कुछ मतदाता कहते हैं कि अब उन्हें क्लीनिक या फिर अस्पतालों में लंबा इंतजार करना पड़ रहा है और इसकी वजह भी वे शरणार्थियों को समझते हैं। यही प्रधानमंत्री लोएवीन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

फिलहाल वह ग्रीन पार्टी के साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं। पिछले चुनावों में उनकी पार्टी आसानी से 40 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रही। लेकिन इस बार यह आंकड़ा 25 प्रतिशत के आसपास रहने का अनुमान है। अगर ऐसा हुआ तो यह स्वीडिश सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन होगा। स्वीडन के राजनीतिक परिदृश्य पर 1930 के दशक से इसी पार्टी का दबदबा रहा है। स्वीडन को एक कल्याणकारी राज्य में तब्दील करने का श्रेय भी इसी पार्टी को दिया जाता है। लेकिन इस चुनाव में सोशल डेमोक्रेट्स को न सिर्फ विपक्षी स्वीडिश मॉडरेट पार्टी के नेता क्रिस्टरसोन से चुनौती मिल रही है, बल्कि उनका असली सिरदर्द स्वीडन डेमोक्रेट्स की बढ़ती लोकप्रियता है।

349 सदस्य वाली स्वीडिश संसद में बहुमत के लिए 175 सीटों की जरूरत है। लेकिन चुनावी सर्वेक्षणों में फिलहाल कोई भी इस आंकड़े के करीब नहीं दिखता। चुनाव के बाद उभरने वाले परिदृश्य में दक्षिणपंथी सत्ता में रहे या विपक्ष में, लेकिन स्वीडन की नीति और राजनीति पर उनका असर जरूर रहेगा। इटली, हंगरी, ऑस्ट्रिया और पोलैंड जैसे देशों की सत्ताधारी पार्टियों से परेशान यूरोपीय संघ स्वीडन के चुनावों पर भी टकटकी लगाए हुए है। रविवार को स्वीडन के 75 लाख मतदाता न सिर्फ लगभग 6,300 उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करेंगे, बल्कि इस चुनाव से देश की राजनीतिक और सामाजिक दिशा भी तय करेंगे। इसका असर शरणार्थियों के लिए बनने वाली नीतियों पर पड़ सकता है। जिस यूरोपीय एकता को पहले एक फायदे के तौर पर देखा जाता था, उसे दक्षिणपंथी एक बोझ साबित करने पर तुले हैं। इसीलिए मजबूत होते दक्षिणपंथी यूरोपीय संघ के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। अब स्वीडन कौन सा रास्ता चुनता है, यह चुनाव नतीजे बताएंगे।