अब से एक हफ्ते बाद ग्लास्गो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता का एक अहम दौर शुरू होगा और इससे ज्यादा कुछ दांव पर नहीं लग सकता। इसके समापन पर ही हम जान जाएंगे कि विभिन्न देश मानवता की सबसे बड़ी चुनौती से निपटने के लिए कहां तक जाने के इच्छुक हैं।
तो क्या सीओपी26 सफलता की राह पर है? आशावान रहने की कुछ वजहें हैं: चीन, अमेरिका और ब्रिटेन समेत 100 से अधिक देश पहले ही ‘शून्य उत्सर्जन’ का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प कर चुके हैं। वैश्विक तौर पर नवीनीकरण ऊर्जा बढ़ रही है, जीवाश्म ईंधन के खिलाफ लहर चल रही है और जलवायु परिवर्तन पर कदम न उठाने की आर्थिक लागत पहले के मुकाबले अधिक स्पष्ट है। अगर इतिहास ने हमें कुछ सिखाया है तो वार्ता में कोई भी देश जलवायु परिवर्तन पर उससे अधिक करने के लिए राजी नहीं होगा जितना उसे लगता है कि वह अपने देश में कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो घरेलू राजनीति अंतरराष्ट्रीय वार्ता को संचालित करती है।
ग्लास्गो में क्या होगा? पहली सीओपी या ‘कांफ्रेंस आॅफ पार्टीज’ 1995 में बर्लिन में हुई थी और अब 26वीं बार इसकी बैठक होगी। सीओपी26 वैश्विक तापमान वृद्धि के खिलाफ लड़ाई के अहम पहलुओं की दिशा तय करेगा। इसमें प्रमुख होगा कि कैसे विकसित देशों ने वैश्विक ताप वृद्धि को दो फीसद से नीचे रखने के लिए पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को लागू किया? और किस हद तक वे इस महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाएंगे।
एजंडे में शामिल अन्य मुद्दे विकासशील देशों को जलवायु वित्त पोषण, जलवायु परिवर्तन को अपनाना और कार्बन व्यापार नियम हैं। 31 अक्तूबर से सरकार के सैकड़ों प्रतिनिधि दो हफ्ते तक चलने वाली जटिल वार्ता में शामिल होंगे। वार्ता में दुनियाभर के लोग शामिल हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रगति धीमी हो सकती है। करीब दो सौ देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और यह सर्वसम्मति से हुआ समझौता है। यानी महज एक देश कई घंटों या दिनों के लिए प्रगति रोक सकता है। जो लोग जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई में देरी करना चाहते हैं वे इस पूरी प्रक्रिया को और कुछ नहीं महज ऐसी प्रक्रिया बताते हैं जहां लोग केवल बात करते हैं लेकिन करते कुछ नहीं।