9/11 Al-Qaeda Terrorist Attack Anniversary: अमेरिका पर 11 सितंबर, 2001 को सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ, हजारों लोगों की मौत हुई, अलकायदा का हाथ रहा, ओसामा बिन लांदेन की भूमिका सामने आई। लेकिन यह सारी वो बातें हैं जो पिछले कई सालों से लगातार बताई जा रही हैं। यह वो तथ्य हैं जो अब हर किसी की जुबान पर हैं, सभी को पता है कि हमला कैसे किया गया, किस वक्त किया गया और उसके करने के पीछे का कारण क्या रहा। इसके ऊपर अगर कभी ज्यादा गहराई में जाने की कोशिश हुई भी तो ओसामा की बायोग्राफी पढ़ ली गई। लेकिन ओसामा बिन लादेन की सोच को डीकोड करने की कोशिश कम हुई, आखिर वो इस्लाम को कैसे परिभाषित करता था, यह जानने का प्रयास नहीं रहा। अब ओसामा बिन लादेन की उसी सोच को जानने की पहल की गई है।

कोई लाचार-पीड़ित नहीं ओसामा, बचपन की कहानी

अब ओसामा की उस सोच को तब तक ठीक तरह से नहीं समझा जा सकता जब तक उसके बचपन के दिनों में ना झाका जाए। ओसामा का जन्म 1957 में सऊदी अरब के जेद्दाह में हुआ था। उसके पिता का नाम मोहम्मद बिन लादेन था जो खुद यमन से भागकर सऊदी आया था। लादेन के पिता को एक बड़े उद्योगपति के रूप में याद किया जाता है जिसकी सऊदी में सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी भी थी। मक्का और मदीना की मस्जिदों के रेनोवेशन का काम भी लादेन के पिता के पास ही आता था। इसके ऊपर पूरे मिडल ईस्ट में वोक्सवैगन कारों का कारोबार भी तब मोहम्मद लादेन ही देखा करता था। अब यह पृष्ठभूमि समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि ओसामा कोई गरीब परिवार से नहीं आया था, उसका कोई ऐसा इतिहास नहीं था कि परेशानियों या फिर संघर्षों की वजह से वो आतंक की दुनिया में आया हो। वो संपन्न था, पैसे वाला था और पढ़ा-लिखा भी काफी बताया जाता था।

नौजवान ओसामा नहीं था धार्मिक, शराब तक पी

अगर पीटर बर्जन की किताब ‘The Rise and Fall of Osama bin Laden’ को पढ़ा जाए तो पता चलता है कि ओसामा बिन लादेन अपने पिता के बहुत करीब नहीं था। वो बचपन में सिर्फ कुछ बार ही अपने पिता से मिल पाया था। दूसरे अमीर बच्चों की तरह उसे ऑक्सफोर्ड में पढ़ने के लिए भेजा गया था। बताया जाता है वहां पढ़ते वक्त दो स्पेनिश लड़कियां उसकी अच्छी दोस्त बन गई थीं। हैरानी की बात यह थी कि वो बालक ओसामा भी अपनी खुद की एक सोच रखता था। ऑक्सफोर्ड में पढ़ते वक्त उसने अंग्रेज लोगों को लेकर अपने मन में एक छवि बना ली थी, वो उन्हें गिरा हुआ मानता था, चरित्रहीन के रूप में देखता था। एक रिपोर्ट दावा करती है कि ओसामा अपने जवानी के दिनों में नाइटक्लब भी जाया करता था, इसके ऊपर सऊदी के अमीर लोगों के साथ शराब पीता था। अब इस डिटेल को जानना और समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह बताता है कि ओसामा बिन लादेन कोई कट्टर मुसलमान नहीं था, वो शुरुआत से ऐसा नहीं था। अगर इस्लाम में शराब पीने को हराम माना जाए तो ओसामा क्यों उसका सेवन करता था?

ओसामा का ‘गुरू’ जिसने बना डाला कट्टरवादी

यह बताने के लिए काफी है कि वो शुरुआती दिनों में इस्लाम को या कहना चाहिए मुस्लिम धर्म को उस तरह से नहीं मानता था। लेकिन जैसे-जैसे ओसामा की उम्र बढ़ी, उसकी सोच भी बदलनी शुरू हो गई। ओसामा ने 17 साल की उम्र में निकाह कर लिया था, उसने अपनी एक 15 साल की कजिन से शादी की थी। शादी के बाद उसमें बदलाव आने शुरू हुए थे, वो थोड़ा धार्मिक बनता भी दिखने लगा था। उस समय ओसामा को किसी ऐसे शख्स की तलाथ थी जो उसे दिशा दिखा सके। उसकी वो कमी उसके कॉलेज के दिनों में तब पूरी हुई जब उसकी मुलाकात अब्दुल्ला आजम से हुई। अब्दुल्ला आजम एक इस्लामिक स्कॉलर था, लेकिन उसकी सोच हिंसक थी। वो बात इस्लाम की करता था, लेकिन रास्ता हिंसा का चुनता। उसके विचारों ने ही कम उम्र वाले ओसामा को काफी प्रभावित करने का काम किया था।

9/11 आतंकी हमले की फंडिंग का क्या था राज?

मुसलमानों को एकजुट करने का पागलपन

कहना चाहिए कि इस्लाम को समझने की जो कोशिश लादेन ने की, उसकी रूपरेखा इसी अब्दुल्ला आजम ने तैयार की थी। आजम मानता था कि सभी मुसलमानों को जिहाद करना चाहिए, वो चाहता था कि सभी को एकजुट होकर धार्मिक युद्ध लड़ना चाहिए जिससे इस्लामिक स्टेट बन सके। अब जिस समय आजम यह विचारधारा ओसामा के दिमाग में घोल रहा था, दुनिया की राजनीति भी बदलनी शुरू हो चुकी थी। अफगानिस्तान में सोवियत यूनियन पूरी तरह सक्रिय हो चुका था, उसकी घुसपैठ बड़े स्तर पर हुई थी। यह सारी बातें 1979 की थी जब सोवियत काफी मजबूत था और ओसामा को कोई जानता भी नहीं था।

अमीर ओसामा, पैसों से फैलाया आतंकवाद

अब ओसामा के दिमाग में यह बात फिट कर दी गई थी कि मुस्लिमों से पूरी दुनिया नफरत करती है, उनके खिलाफ साजिश रची जा रही है और अगर इस्लाम को बचाना है तो उसे आगे आना ही पड़ेगा, उसे अपनी एक फौज खड़ी करनी ही पड़ेगी। इसी विचारधारा को आगे बढ़ाने का पहला मौका ओसामा को 1979 में मिल गया, वो अपने ‘गुरू’ अब्दुल्ला आजम के साथ पेशावर चला गया। पाकिस्तान के उस इलाके में रहकर ही ओसामा और आजम ने वो कर दिखाया जो वो शायद खुद युद्ध लड़ नहीं कर पाते। दोनों ने उन अफगानी लड़ाकों के लिए पैसे-हथियार का इंतजाम किया जो सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध लड़ रहे थे। इसके ऊपर पूरे मिडिल ईस्ट से उन युवा मुसलमानों को खोजा गया जो जिहाद के नाम पर लड़ सकें। उन्हीं लड़ाकों की फौज को एकजुट कर ओसामा ने अपना पहला संगठन बनाया- Maktab al-Khidamat (MAK)।

ओसामा का मिशन अफगानिस्तान, अमेरिका ने भी की मदद

अब सोवियत संघ और अमेरिका एक दूसरे को कभी पसंद नहीं करते थे, ऐसे में बीबीसी की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ओसामा की उस समय की फौज को अमेरिका की इंटेलिजेंस एजेंसी से ट्रेनिंग तक मिली थी। इससे पता चलता है कि अमेरिका ने भी अपने हितों को साधने के लिए हर किसी को समय-समय पर अपना समर्थन दिया था, इसे उसकी कूटनीति कहा जाए या फिर नासमझी, इस पर बहस आज भी जारी है। वैसे बर्जन अपनी किताब में बताते हैं कि ओसामा से ज्यादा अफगानिस्तान में वो जीत उन अफगान लड़ाकों की थी जिन्होंने जमीन पर युद्ध लड़ा था। ऐसा इसलिए क्योंकि उस युद्ध में ओसामा के सिर्फ 13 साथियों की ही मौत हुई थी। अब ओसामा का एक मिशन तो पूरा हुआ था, लेकिन उसकी उस विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया था जहां वो अमेरिका को भी एक दोषी के रूप में देखता था।

जब सेकेंडों में दहल गया था अमेरिका

ओसामा जहां पैदा हुआ, उस देश ने ही उसे नकार दिया

10 साल के अफगानिस्तान संघर्ष के बाद ओसामा बिन लादेन ने अलकायदा बनाने का फैसला किया था। उस संगठन को बनाने के बाद ओसामा वापस सऊदी अरब चला गया, वहां जाकर उसने और पैसा इकट्ठा करना शुरू किया। उस समय तक किसी को अंदाजा नहीं था कि किस मिशन के लिए ओसामा पैसा जुटा रहा है। लेकिन जैसे रुझान उसने अफगानिस्तान में दिखाए थे, साफ था वो कुछ बड़ा करना चाहता था। इसके ऊपर उसकी अमेरिका के खिलाफ बढ़ती नफरत ने तब की सऊदी सरकार को ही परेशान कर रखा था। उस जमाने में अमेरिका और सऊदी अरब के शाही परिवार के अच्छे रिश्ते थे। ऐसे में ओसामा का एक भड़काऊ भाषण, उसकी कोई भी हरकत उन रिश्तों को खराब कर सकती थी। इसी वजह से सऊदी अरब ने ओसामा का पासपोर्ट ही उससे छीन लिया था, उसे पूरी तरह आइसोलेट करने की कोशिश थी।

खुद को सबसे महान बनाने की जिद

बताया जाता है कि 1990 में ओसामा ने सऊदी अरब की सरकार से एक मांग की थी। वो चाहता था कि कुवेत पर जिस तरह से ईराक ने हमला किया है, वहां फंसे मुस्लिम भाइयों को बचाने के लिए सऊदी अरब को जाना चाहिए। लेकिन तब शाही परिवार ने उसकी उस मांग को ठुकरा दिया था, इसके ऊपर अमेरिका से ही मदद मांगी गई। अब यहां पर ओसामा की पर्सनालिटी का एक रूप सामने आता है। वो इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को एकजुट तो करना चाहता ही था, खुद को दुनिया का सबसे बड़ा इंसान भी मानता था। उसे लगता था कि ‘मास्टर ऑफ वर्ल्ड’ अमेरिका नहीं उसका संगठन अलकायदा बनेगा। यानी कि अमेरिका से वो सिर्फ नफरत नहीं करता था, वो उनसे मुकाबला भी करना चाहता था।

अमेरिका से नफरत का बड़ा कारण

ओसामा के मन में यह बात सेट हो चुकी थी कि अमेरिका इस्लाम धर्म का सम्मान नहीं करता था, वो उनके अल्लाह को हर बार अपमानित करता था। उसका ऐसा मानने का एक कारण यह था कि अमेरिका ने 1991 में अपने 3 लाख सैनिक और महिलाओं को सऊदी अरब में तैनात किया था। अब खुद ओसामा कितनी भी हिंसा करे, वो मानता था कि जिस जगह पर मुसलमानों की दो सबसे पवित्र स्थल हैं, वहां पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती सही नहीं। अमेरिका की इस हरकत ने भी ओसामा के मन में उनके लिए जहर बढ़ा दिया था। लेकिन ओसामा यह बात भी जानता था कि अमेरिका के खिलाफ वो सऊदी में रहकर कुछ नहीं कर सकता था, वहां तो उस पर पाबंदियां बढ़ती जा रही थीं, ऐसे में 1996 में वो अफगानिस्तान आ गया।

ओसामा के फतवे और आतंकवाद का प्रचार

अब यह पूरी तरह बदला हुआ ओसामा बिन लादेन था, यह धार्मिक तो था, लेकिन उसे अलग नजरिए से देखता और समझता था। इस बात को उसके 1998 के एक फतवे से समझा जा सकता है। ओसामा ने फरवरी 1998 के एक फतवे में कहा था कि अमेरिका और उसके साथियों को मारना हर मुस्लिम की जिम्मेदारी है, उसकी पहली प्राथमिकता है। यानी कि अपनी निजी नफरत को ओसामा अब हर मुस्लिम में भरना चाहता था, वो हर कीमत पर अमेरिका के खिलाफ मुस्लिमों की जंग चाहता था। लेकिन वही अमेरिका शायद ओसामा के खतरे को कभी समझ ही नहीं पाया। ऐसा इसलिए क्योंकि ओसामा जितने भी फतवे जारी कर रहा था, उनमें अमेरिका के खिलाफ हमला करना शामिल था। इसके ऊपर उसके अलकायदा संगठन ने कई ऐसे हमले कर दिए थे जिनमें अमेरिकी सैनिकों, लोगों की जान गई थी।

ओसामा की नफरत की पराकाष्ठा 9/11 हमला

उदाहरण के लिए 7 अक्टूबर 1998 को केन्या की अमेरिकी एंबेसी में हमला हुआ था जिसमें 213 लोग मारे गए, इसी तरह तंजानिया में एक बम धमाका हुआ, वहां भी अमेरिका के लोगों को निशाना बनाया गया, नतीजा 11 की मौत हो गई। इन सभी हमलों से अमेरिका चाहता तो समझ सकता था कि ओसामा का खतरा बड़ा है, लेकिन उसकी इंटेलिजेंस पूरी तरह फेल रही, कुछ चेतावनियां मिली भी तो उन्हें नजरअंदाज कर दिया। इसी वजह से 11 सितंबर 2001 को ओसामा ने अमेरिका के खिलाफ अपना सबसे बड़ा हमला किया और तब जाकर वहां की सरकार की आंखें खुली। लेकिन ओसामा बिन लादेन ने जो किया, इस्लाम को अपनी ढाल बनाकर उसने जिस तरह से अपनी ही हिंसा को हर बार सही बताया, वो शायद यह भूल गया था कि हर मुसलमान ऐसा नहीं था। इस्लाम ने भी उसकी इस विचारधारा का कभी समर्थन नहीं किया।

मुसलमानों ने ही ओसामा को जमकर कोसा

दुनिया के सामने यह धारणा जरूर बना दी गई कि इस्लाम इस तरह की हिंसा को बढ़ावा देता है, इस्लाम आतंकवाद के फलने-फूलने में सहायक रहता है, लेकिन सच्चाई इससे बहुत अलग है। ओसामा जैसे कुछ नापाक इरादे वाले आतंकियों ने ही इस्लाम को सबसे ज्यादा बदनाम करने का काम किया। इसका एक सबूत तो वो रिसर्च है जहां पर कई मुसलमानों के बीच में ही ओसामा बिन लादेन को लेकर सवाल पूछे गए थे। उसकी सोच को सही या गलत बताने के लिए कहा गया था। जो सामने आया, उसने बता दिया कि मुसलमान कोई ओसामा बिन लादेन को अपना सगा नहीं मानता है, उनकी नजरों में अलकायदा कोई अल्लाह की फौज नहीं है।

जहां सबसे ज्यादा मुस्लिम, उतना ही कम ओसामा का समर्थन

Pew की रिसर्च बताती है कि 2003 के बाद से ही ओसामा बिन लादेन को लेकर मुसलमानों का विश्वास काफी कम हो चुका था। फिलिस्तीनी इलाकों में ओसामा की लोकप्रियता में 38 फीसदी तक की कमी आई थी, जॉर्डन में उसका ग्राफ सीधे 56 फीसदी से 13 फीसदी पर आ गया था। पाकिस्तान में भी अगर 2005 तक 52 प्रतिशत लोग ओसामा के काम को सही मानते थे, उसकी मौत के बाद वो आंकड़ा गिरकर 18 फीसदी पर आ गया। इसके ऊपर जिन देशों में ज्यादा मुसलमान थे, उदाहरण के लिए इंडोनेशिया, इजिप्ट, वहां भी ओसामा की विचारधारा को ना के समान ही समर्थन मिलता दिखा। वर्तमान में भी कई मुस्लिम और इस्लाम को जानने-समझने वाले मानते हैं कि ओसामा बिन लादेन की हिंसा ने ही उनके धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने का काम किया, इस वजह से पश्चिमी देशों में उन्हें शक की नजर से देखा गया, कई दूसरे मुल्कों में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गई।

मुस्लिम समाज में बढ़ता यह आक्रोश ही बताने के लिए काफी है कि आतंकवाद की दुनिया में कितने भी और ओसमा क्यों ना आ जाए, वो अपनी हिंसा से इस दुनिया को नहीं जीत सकते हैं, वो इस्लाम को कमजोर करने का काम नहीं कर सकते हैं।