तड़ाक-तड़ाक। लाठी की आवाज़ फिर सुनाई दी और उसी के साथ रोता-कलपता स्वर…साहिब सब कुछ ले लो बस मारो नहीं।..
मैं अब घटनास्थल पर था। एक 50 साल का काला-सा आदमी गर्भस्थ शिशु की पोजीशन में पड़ा बिलबिला रहा था। वह मैली सी बंडी और ग्रीज़-तेल में सनी लुंगी पहने था। उसने एक हाथ से कमर पर लुंगी की टेंट को दबोच रखा था। उसके सिर से खून बह रहा था और वह फ़टी-फ़टी आंखों से यमराज की मानिंद खड़े हरियाणा पुलिस के कॉन्स्टेबल को देख रहा था। मुझको आता देख सिपाही थम सा गया था। थोड़ा चकित था क्योंकि उसे उस डिब्बे में मेरे जैसे आदमी के मिलने की कोई उम्मीद न थी। मैंने आवाज़ में गुरुता भरकर सवाल किया, “क्या कर रहे हैं, दिवान साहब।”
“आपसे मतलब!!” इतना कहके सिपाही बैठ गया और उस आदमी के हाथ को लुंगी की टेंट से हटाने लगा। गरीब आदमी ने टेंट को मजबूती से दबोच रखा था।
“इस आदमी की टेंट से पैसे छीन रहे हो” मेरा क्रोध बढ़ रहा था। बोला, “तुम्हारे एसपी से शिकायत कर दूंगा..सब बहादुरी निकल जाएगी!!”
“कौन हैं आप?” उसकी आवाज़ से पुलिसिया हनक गायब हो गई थी। वह गरीब आदमी को छोड़ कर उठ खड़ा हुआ।
मैंने उसकी आँखों के सामने अपना कार्ड चमका दिया। जवाब में वह मिठास भरकर शिकायती लहज़े में बोला, “यह चरस-गांजे का धंधेबाज़ है। मुझे पक्का विश्वास है कि इसकी टेंट में चरस की बड़ी गोट है।”
मैं उस बदहाल बिहारी को देख रहा था। पिचका हुआ पेट और बमुश्किल तमाम 40 किलो वजन। मैंने हंसकर कहा, “दिवान साहब, इसने शायद कई दिन से रोटी भी न खाई हो..चरस के तस्कर ऐसे होते हैं क्या?”
इस बीच ट्रेन धीमी होकर रुक सी रही थी। सिपाही यह कहते हुए दरवाज़े की तरफ चला गया कि सहाफी और सिपाही भाई-भाई होते हैं। दोनों समाज के भले के लिए काम करते हैं। ट्रेन रुक गई थी। सिपाही ने मेरी तरफ़ देखा। जयहिंद का सलाम उछाला और उतर गया।
सफलता से झूमता मैं अपनी सीट पर आ गया। ट्रेन फिर चल दी थी और सारे मुसाफिर मुझे श्रद्धा से निहार रहे थे। मेरी छाती गर्व से फूल रही थी। फटेहालों का नायक!!
मैं सहसा वोकल हो उठा…तुम लोग लड़ते क्यों नहीं..पूरे डिब्बे में तुम डेढ़ सौ लोग हो..उस सिपाही की क्या औकात..अगर दारा सिंह भी यहां आ जाएं तो तुम उसकी तिक्का-बोटी कर डालो..।
मेरा लेक्चर रुकने का नाम नहीं ले रहा था। विराम तब लगा जब गाड़ी अम्बाला स्टेशन पर रुकी। चाय, पूड़ी, छोले आदि का शोर मचने लगा। मैं बाहर का मंज़र देखने लगा। तभी देखा कि खिड़की के बाहर वही दिवान जी एक झोला लिए खड़े हैं। मेरी खिड़की इमरजेंसी एग्जिट वाली थी, जिसकी ग्रिल को पूरा उठाया जा सकता है। दिवान जी ने एक मुसाफिर से ग्रिल उठाने को कहा। ग्रिल उठा और दिवान जी ने झोला मेरी गोद मे रख दिया और जल्दी-जल्दी चले गए।
मैंने झोले का सामान बाहर निकाला। खानेपीने का सामान था। छोले, कुलचे, दही, रबड़ी, एक रेलनीर और एक कोल्ड्रिंक। इसके अलावा कागज़ के एक पाउच और था। मैंने खोला तो उसमें एक डेबोनेयर और एक हिंदी की अश्लीलतम स्तर की किताब थी।
मैंने सिपाही से पिटने वाले आदमी को बुलाया और खानेपीने का सारा सामान दे दिया। जाने लगा तो मैंने रोककर पूछा कि क्या छिपा रहा था। उसने जवाब में टेंट उलट कर दिखा दी। सौ का एक गुड़मुड़ाया नोट था बस। उसने बताया कि तीन सौ रुपए बण्डी की जेब में थे। उन्हें पुलिस वाले ने पहले ही निकाल लिया था। मारपीट लुंगी की टेंट में रखे सौ के नोट के लिए थी। उस गरीब ने जान की बाज़ी लगाकर सौ रुपए बचा लिए थे। वह मुस्कुरा रहा था।
ट्रेन भागती रही। स्टेशन गुज़रते रहे। मैं थोड़ा उनींदा हो गया था। सोनीपत में एक बार नींद टूटी लेकिन फिर से ऊंघने लगा। कुछ देर बाद नींद टूटी तो देखा ट्रेन मंडी से गुज़र रही है। इसी के साथ डिब्बे के एक छोर से आने लगी सुबकने की आवाज़, जो तेज़ होती गई। आखिरकार मुझे इंटरेस्ट लेना पड़ा। वह आदमी मेरे सामने लाया गया। उसने अपनी बक्सा मेरे सामने खोल दी और बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा।
“साहब, सारा पोइशा ले गया।”
“कौन?”
“एक सिपाही”
“कब, कहां.. किस स्टेशन पर?”
” वह तभी आ गया था जब गाड़ी लुधियाना से खुली थी”
“फिर क्या हुआ?”
“वह सबका बक्सा खुलवा कर देख रहा था, उसने पहले एक बक्सा खुलवाया। फिर दूसरा नम्बर मेरा था”
“तो?”
“मैंने इनकार कर दिया। इस पर वह मुझे बक्से समेत टॉयलेट में खींच ले गया। दरवाज़ा बन्द कर उसने मेरी छाती पर बंदूक अड़ा दी। बोला-अब खोल। मैंने ताला खोला। भीतर 5000 रुपए रखे थे। उसने जेब में डाल ली और सा संडास का दरवाजा खोल कर चला गया।”
“तुमने बाहर निकल कर शोर क्यों नहीं मचाया तुरन्त” मैंने पूछा, ” और, अब इतनी दूर बाद क्यों रो रहे हो?
लईक नाम का किशनगंज निवासी यह भोला आदमी अपनी बांग्ला मिश्रित बोली में बोला, ” शिपाही हाथे बोन्दूक था। बोला, दिल्ली के पहले शोर मचाया तो मैं वापस आकर बोन्दूक से भून दूंगा।” ट्रेन दिल्ली स्टेशन के अंदर प्रवेश कर रही थी। लईक बेसाख्ता रोए जा रहा था। (दिल्ली में गरीबों पर टूट पड़ी वहशियों की भीड़: पढ़ें कल)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)