सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में छह महीने से लेकर पांच साल के 58.5 फीसदी बच्चे और 15 से 49 साल के बीच की महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। एनीमिया एक सामान्य बीमारी है जो शरीर में खून या हीमोग्लोबिन की कमी की वजह से होता है। हालांकि उचित खानपान और पोषक आहार के जरिये इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। एनीमिया के नाम से ही एक और तरह का रक्त विकार है, जिसे अप्लास्टिक एनीमिया के नाम से जाना जाता है। यह गंभीर रोग है, जिसमें शरीर में नई रक्त कोशिकाएं बनना बंद हो जाती हैं और इसकी वजह से पीड़ित कई तरह की दूसरी बीमारियों की चपेट में आ जाता है।
कौन आ सकता है चपेट में?: एक्सपर्ट्स के मुताबिक अप्लास्टिक एनीमिया दो तरह का होता है, एक्वायर्ड और इन्हेरिटेड। इन्हेरिटेड अप्लास्टिक एनीमिया वंशानुगत क्रम खराब जीन के कारण होता है और इसकी वजह से इसके पीड़ित को ल्यूकेमिया या फिर दूसरे तरह के कैंसर होने का खतरा रहता है। वहीं एक्वायर्ड अप्लास्टिक एनीमिया के पीछे एचआईवी या एप्स्टीन बर्र वायरस, टॉक्सिक केमिकल से संपर्क, रेडिएशन, कीमोथेरेपी ट्रीटमेंट जैसी वजहों को माना जाता है। यह ऐसी बीमारी है जिसकी चपेट में बच्चे, किशोर, युवा यहां तक कि अधेड़ और बुजुर्ग भी आ सकते हैं। महिला और पुरुष दोनों पर अप्लास्टिक एनीमिया का खतरा समान ही रहता है।
क्या हैं बीमारी के लक्षण: शरीर में कई तरह की रक्त कोशिकाएं होती हैं जैसे रेड ब्लड सेल्स और व्हाइट ब्लड सेल्स। अप्लास्टिक एनीमिया एक तरह का रक्त विकार है ऐसे में खून की जो भी कोशिका प्रभावित होगी वह इस बीमारी के अलग लक्षण दिखाने वाली होगी। मसलन रेड ब्लड सेल के प्रभावित होने पर रोगी को थकान, सिरदर्द, चक्कर आना, सांस लेने में दिक्कत, त्वचा में पीलापन जैसी शिकायतें दिखती हैं। अगर व्हाइट ब्लड सेल प्रभावित होता है तो रोगी को संक्रमण और बुखार और प्लेटलेट काउंट कम होने की स्थिति में नाक से खून आना, चोट लगने पर खून का देर तक बहना और उसका जल्दी न रुकना जैसी समस्या आती है।
कैसे करें बचाव: अगर सही समय पर अप्लास्टिक एनीमिया का पता चल जाए तो दवाइयों के जरिये इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है। फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में डिपार्टमेंट ऑफ ब्लड डिस्ऑर्डर के डायरेक्टर डॉक्टर राहुल भार्गव कहते हैं, ‘अगर इस रोग के पीड़ित का ब्लड काउंट सामान्य से नीचे गिर गया हो तो उस स्थिति में हार्मोन्स कंट्रोल करने वाली और एंटी फंगल के साथ कुछ एंटीबायोटिक्स के जरिये इलाज किया जाता है। कुछ मामलों में ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता होती है। कई मामलों में रोगी को अनेक बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन करवाना पड़ता है।अगर रोगी के शरीर में ब्लड सेल तेजी से न बढ़ रहे हों तो बोन मैरो ट्रांसप्लांट के जरिये भी इसका इलाज किया जा सकता है।’