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वर्तमान समय में बर्फ एक सर्वसुलभ और सर्वव्यापी है। लेकिन कभी बर्फ लक्जरी आइटम हुआ करता था, जिसका इस्तेमाल केवल अति कुलीन वर्ग के लोग ही कर पाते थे। ठंडे मौसम के आदी अंग्रेज जब भारत आए तो उन्हें यहां की प्रचंड गर्मी का सामना करना पड़ा। उन्हें राहत के लिए बर्फ चाहिए था, जो भारत में आसानी उपलब्ध नहीं था।

बाबर के लिए कश्मीर से आता था बर्फ

ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में बर्फ का इस्तेमाल नहीं होता था। मुगल बर्फ का इस्तेमाल करते थे। इससे जुड़े कई साक्ष्य और दस्तावेज उपलब्ध हैं। उन्होंने बर्फ के लिए पूरा का पूरा नेटवर्क तैयार कर रखा था। मुगल सम्राट बाबर के लिए कश्मीर से हाथियों और घोड़ों पर लादकर राजधानी दिल्ली में बर्फ लाया जाता था। कश्मीर से दिल्ली बर्फ लाने में मुगल बादशाह को भारी संसाधन खर्च करना पड़ता था लेकिन ऐशो आराम के आदी मुगल बादशाहों पर इसका असर नहीं पड़ता था।

दूसरी तरफ अंग्रेज व्यापारी थे। उन्होंने भी पहले मुगलों की तरह ही कुछ दिन कश्मीर से बर्फ मंगाया। लेकिन उसके परिवहन आने वाले खर्च से कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने जल्द ही हाथ खड़े कर दिए। फिर उन्हें अमेरिकी बर्फ की याद आयी।

अंग्रेजों ने किया अमेरिका का रुख

जैसा कि हम जानते हैं अंग्रेजों ने दिल्ली से पहले कलकत्ता (अब कोलकाता) को राजधानी बना रखा था। जब कश्मीर से बर्फ मंगाना बंद हुआ तो अंग्रेजों ने अमेरिका से बर्फ मंगाना शुरू किया। सितंबर 1833 में अमेरिकी शहर बोस्टन से ‘द क्लिपर टस्कनी’ नामक जहाज पर पहली बार बर्फ कलकत्ता पहुंचा था, जिसे देखकर अंग्रेज बहुत खुश हुए। जहाज चार महीने की समुद्री यात्री कर कोलकत्ता पहुंचा था। जहाज पर अंग्रेजों के लिए  100 टन बर्फ था। यह इतनी बड़ी घटना थी कि बंगाल के पहले ब्रिटिश गवर्नर-जनरल विलियम बेंटिक ने जहाज के चालक दल, विशेष रूप से कीमती माल के प्रभारी व्यक्ति विलियम सी. रोजर्स की सराहना की थी।

आइस हाउस बनाने में अंग्रेजों के खर्च की मोटी रकम

साल 1838 में प्रकाशित एक दस्तावेज से पता चलता है कि बर्फ को स्टोर करने के लिए बंगाल में बनाए गए पहले आइस हाउस पर 10,500 रुपये की लागत आयी थी। उस समय अंग्रेजों की एक बड़ी धनराशि का ‘अमेरिकी बर्फ’ को स्टोर करने पर खर्च हो रही थी।

19वीं सदी के बंगाल में एक विलासिता की वस्तु होने के बावजूद बर्फ चार आने प्रति मिलता था, लेकिन शहर में केवल ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय लोग ही इसका सेवन करते थे।

नदियों, तालाबों और झड़नों से काटकर आता था बर्फ

यह स्पष्ट नहीं है कि ट्यूडर आइस कंपनी की स्थापना अमेरिकी व्यापारी फ्रेडरिक ट्यूडर ने कब की थी। इस व्यापार में  फ्रेडरिक ट्यूडर का करीब दो दशकों तक प्रभुत्व रहा। बोस्टन में फ्रेडरिक ट्यूडर द्वारा स्थापित ट्यूडर आइस कंपनी अपने विशेष रूप से निर्मित जहाजों में अमेरिका से भारत तक बर्फ आयात करने वाली एकमात्र कंपनी थी। इधर कलकत्ता और अन्य तटीय औपनिवेशिक शहरों में बर्फ को स्टोर करने के लिए आइस हाउस बनाए गए थे।

अपने पेपर ‘द अमेरिकन आइस हार्वेस्ट्स’ में लेखक रिचर्ड ओ. कमिंग्स का कहना है कि ट्यूडर ने जो बर्फ समुद्र पार करके कलकत्ता भेजी थी, वह न्यू इंग्लैंड की सर्दियों के दौरान मैसाचुसेट्स की जमी हुई नदियों, तालाबों और झरनों से काटी गई थी।

एशियाटिक सोसाइटी का जर्नल इस बात की जानकारी मिलती है कि ट्यूडर और उसके साथी बर्फ व्यापारियों द्वारा बर्फ की कटाई कैसे की गई थी। व्यापार के शुरुआती वर्षों में बर्फ को पुरुषों द्वारा कुदाल, छेनी और अन्य उपकरणों से काटा जाता था। लेकिन जल्द ही इसकी जगह घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले उपकरण ने ले ली।

इस व्यापार की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक था बर्फ का भंडारण। उचित भंडारण सुविधाओं के अभाव में जहाजों पर लादने से पहले ही बर्फ पिघलने लगते थे। 1810 तक ट्यूडर ने विशेष बर्फ डिपो में बर्फ भंडारण का एक तरीका ढूंढ लिया था, क्यूबा पर अमेरिकी व्यापार प्रतिबंध के बावजूद पहला डिपो 1810 में हवाना में बनाया गया था।

कपास के बाद बर्फ 1847 तक अमेरिका और भारतीय उपमहाद्वीप के बीच दूसरी सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक वस्तु बन गई थी। विशेषाधिकार प्राप्त औपनिवेशिक निवासियों द्वारा इसकी खपत के अलावा, आयातित बर्फ का उपयोग भंडारण के लिए भी किया जाता था। जब बर्फ की पहली खेप पहुंची तो इसे अमेरिकी सेबों की एक बड़ी खेप को ताजा रखने के लिए भेजा गया था। इसके अलवा बर्फ का उपयोग सबसे महत्वपूर्ण पार्टियों में शीतल पेय के लिए किया जाता था। घर में बर्फ रखना विशेषाधिकार की बात थी। इसे यश प्रदर्शन की तरह देखा जाता था। आम लोगों के लिए बर्फ बहुत महंगी और दुर्लभ थी। अगर आप सही लोगों को नहीं जानते थे, तो बर्फ तक पहुंचने के लिए डॉक्टर से प्रिस्क्रिप्शन लिखवाना पड़ता था।

बर्फ को शापित मानते थे मजदूर

भारतीयों के लिए बर्फ कोई अजीब चीज थी। शुरुआत में मिश्रित भावनाएं थीं। बंगाल में बर्फ देखने वाले पहले भारतीय बंदरगाह के मजदूर थे। मजदूर हैरान थे कि यह कैसी चीज है जिसे छून से कंपकंपी होती है लेकिन उसमें से किसी गर्म पदार्थ की तरह घुआं भी उठता है। इसलिए उन्होंने सोचा कि बर्फ एक शापित वस्तु है। यही वजह थी कि बंदरगाह के मजदूर जहाज से बर्फ उताने के लिए अधिक पैसों की मांग करते थे। सामान्य तौर पर भारतीय संभ्रांत लोग भी बर्फ को एक जिज्ञासा और विशेषाधिकार की चीज़ के रूप में देखते थे।

कैसे खत्म हुआ अमेरिकी बर्फ का दबदबा?

दो दशक से भी कम समय में अमेरिकी बर्फ व्यापार को एक बड़ा झटका लगा। अंग्रेजों ने बर्फ बनाने का आधुनिक तरीका खोज लिया, जिससे अमेरिकी बर्फ की आवश्यकता समाप्त हो गई। अमेरिकी बर्फ इतनी निरर्थक हो गई कि अंग्रेजों ने 1878 में कलकत्ता बर्फ फैक्ट्री की स्थापना की और 1882 में शहर के पुराने बर्फ के घर को ध्वस्त कर दिया। मद्रास और बॉम्बे में बर्फ के घरों का भाग्य भी इसी तरह का रहा और 1880 के दशक के अंत तक ये प्रतिष्ठान भी नष्ट हो गए।