ऋषिका सिंह

नीलगिरी से द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) सांसद अंदिमुथु राजा (A. Raja) ने रविवार (3 जुलाई) को मुख्यमंत्री एम के स्टालिन की उपस्थिति में कहा, अगर केंद्र सरकार राज्य को अधिक स्वायत्तता नहीं देती है, तो हमारी अलग देश की मांग फिर से जिंदा हो सकती है।

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ट्विटर पर अपने भाषण का वीडियो शेयर करते हुए ए. राजा ने लिखा है, ”हमारे मुख्यमंत्री (स्टालिन) अन्नादुरई के पथ पर चलते हैं, उन्हें पेरियार के मार्ग पर न धकेलें। हमें अपना देश मांगने के लिए मजबूर न करें। हमें राज्य की स्वायत्ता दें।” हालांकि इसके साथ राजा ने ये भी जोड़ा कि राष्ट्रीय अखंडता और लोकतंत्र महत्वपूर्ण है।

ई वी रामासामी ‘पेरियार’ (1879-1973) ने  तमिलों की “पहचान और स्वाभिमान को भुनाने” के लिए आत्म सम्मान आंदोलन शुरू किया था। उन्होंने द्रविड़नाडु नाम की एक स्वतंत्र द्रविड़ मातृभूमि की परिकल्पना की थी, जिसमें तमिल, मलयालम, तेलुगु और कन्नड़ भाषी शामिल थे। अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए पेरियार ने एक राजनीतिक दल द्रविड़ कषगम (डीके) भी बनाया था।

सी एन अन्नादुरई (1909-1969) मद्रास राज्य के अंतिम मुख्यमंत्री और तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने पेरियार से नाता तोड़कर द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) की स्थापना की, जिसने अंततः स्वतंत्र द्रविड़नाडु की मांग को आक्रामक तरीके से उठाना छोड़कर तमिलनाडु के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग को तेज किया। साथ ही दक्षिणी राज्यों के बीच बेहतर सहयोग के लिए काम किया।

राजा की टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब तमिलनाडु की द्रमुक सरकार लगातार मुखर रूप से केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना कर रही है और उस पर भारत के संघीय ढांचे को कमजोर करने का आरोप लगा रही है।

द्रविड़नाडु की मांग : अलग द्रविड़ देश की मांग का आन्दोलन कई चरणों में चला। मद्रास राज्य की औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ 20वीं सदी के शुरुआती आंदोलनों में अक्सर क्षेत्रीय अभिव्यक्तियां शामिल थीं। 1917 में सर पिट्टी थियागराया चेट्टी, डॉ टी एम नायर और डॉ सी नतेसा मुदलियार ने साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन की स्थापना की। यह जस्टिस पार्टी के नाम से लोकप्रिय हुई। इसने उस ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया, जिसने ब्राह्मणों को सामाजिक व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा रखा था।

उस वक्त मद्रास सरकार में ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व राज्य में उनकी आबादी की तुलना में अधिक थी। जस्टिस पार्टी ने मांग की जाति व्यवस्था में नीचे रखे गए समुदायों को भी अवसर दिया जाए। 1920 में जस्टिस पार्टी ने भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत आयोजित पहला विधान परिषद चुनाव जीता और सरकार बनाई। कांग्रेस ने चुनाव का बहिष्कार किया था। जस्टिस पार्टी 1926 तक और फिर 1930-37 तक सत्ता में रही।

आत्म-सम्मान आंदोलन (1925) के संस्थापक पेरियार जाति-विरोधी और धर्म-विरोधी दोनों थे। उन्होंने समाज में महिलाओं के लिए समानता की वकालत की, उनकी स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए बर्थ कंट्रोल का समर्थन किया। उन्होंने हिंदी के वर्चस्व का भी विरोध किया और तमिल राष्ट्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान पर जोर दिया। 1938 में जस्टिस पार्टी और सेल्फ-रिस्पेक्ट मूवमेंट एक साथ आए। 1944 में नए संगठन का नाम द्रविड़ कषगम (डीके) रखा गया। डीके ब्राह्मण विरोधी, कांग्रेस विरोधी और आर्य विरोधी (उत्तर भारतीय भी कह सकते हैं) संगठन था। इसने एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र के लिए आंदोलन शुरू किया।

स्वतंत्रता के बाद भी डीके ने द्रविड़नाडु की मांग जारी रखी। तब डीके के कर्ताधर्ता पेरियार ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था। 1949 में अन्नादुरई वैचारिक मतभेदों के कारण पेरियार से अलग हो गए और उनकी DMK चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो गई। द्रमुक में मुख्य रूप से सामाजिक लोकतंत्र और तमिल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर जोर दिया। तब द्रमुक नेता अन्नादुरई द्रविड़नाडु के मामले पर चुप रहे। 1967 में अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने।

भाषाई राष्ट्रवाद : 1948 में स्थापित भाषाई प्रांत आयोग (या एस के धर आयोग) ने राज्यों के पुनर्गठन के भाषाई आधार के खिलाफ तर्क देते हुए कहा था कि भविष्य में इससे विभाजन बढ़ सकता है। 1952 में एक अलग तेलुगु राज्य की मांग के लिए किए गए 56 दिनों की भूख हड़ताल के अंत में स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामुलु की मृत्यु हो गई। तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आक्रोशित जनता के सामने आए। उन्होंने अलग आंध्र राज्य बनाने के इरादे की घोषणा की। 1953 में न्यायमूर्ति फजल अली, इतिहासकार के एम पणिक्कर और सांसद एच एन कुंजरू के तहत राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) का गठन किया गया।

आयोग की रिपोर्ट राज्यों के भाषाई विभाजन के पक्ष में थी। हालांकि रिपोर्ट में आगाह किया गया था कि सिर्फ भाषा या संस्कृति के आधार पर राज्य का पुनर्गठन करना न तो संभव है और न ही सही। एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक होगा, जो सभी प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखे। राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 ने भाषाई आधार पर राज्यों की सीमाओं को फिर से बनाया और दक्षिण भारत में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मैसूर और केरल राज्यों का निर्माण किया। इस प्रक्रिया में भाषाई आंदोलनों की एक प्रमुख मांग को पूरा किया गया और एक स्वतंत्र द्रविड़नाडु के विचार को और कमजोर किया।

तमिल पहचान का दावा : 1967 के बाद से चूंकि सत्ता DMK और AIADMK के बीच चली गई है, तमिल संस्कृति और भाषा का संरक्षण राज्य सरकारों का एक प्रमुख फोकस क्षेत्र रहा है। राज्य ने त्रिभाषा फार्मूले का विरोध किया। इस फार्मूले के तहत तीन भाषाओं पर एक साथ फोकस करना होता है,  इसमें हिन्दी, अंग्रेजी और राज्य की क्षेत्रीय भाषा भाषा शामिल होती है। दक्षिण भारतीय राज्यों ने आज भी स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का विरोध जारी रखा है।

अन्नादुरई ने मई 1962 में राज्यसभा में हिन्दी के प्रभुत्व को रेखांकित करते हुए कहा था जब माननीय सदस्य हिंदी में बोलते हैं और हिंदी में उत्तर प्राप्त करते हैं। उस समय मुझे उनकी आँखों में एक ऐसी झिलमिलाहट नज़र आती है, मानो कह रहे हों ‘तुम लोग, जब तक तुम हिंदी नहीं सीखोगे, तुम्हें चुप रहना होगा’

द्रविड़नाडु की मांग को धीरे-धीरे शिक्षा और सांस्कृतिक प्रथाओं में अधिक स्वायत्तता की मांग से बदल दिया गया। 2018 में स्टालिन, जब DMK के कार्यकारी अध्यक्ष और तमिलनाडु विधानसभा में विपक्ष के नेता थे, तो कहा था कि ‘अगर दक्षिणी राज्यों को मिलाकर द्रविड़नाडु की मांग की गई, तो वह इसका समर्थन करेंगे।’ उन्होंने बाद में स्पष्ट किया कि उन्होंने आंदोलन को फिर से शुरू करने का सुझाव नहीं दिया, लेकिन कहा: “अन्ना ने द्रविड़नाडु के विचार को छोड़ दिया और स्पष्ट किया कि उसके निर्माण के कारण थे। अन्ना सही साबित हुए हैं, खासकर अब