“दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं”
इन शब्दों को लिखने वाले इश्क और इंकलाब के शायर साहिर लुधियानवी का निधन 25 अक्टूबर, 1980 को हुआ था। आधे दशक से ज्यादा की जिंदगी में जादूगर (साहिर का मतलब) ने जो रचा वह आज भी हक हकूक के लिए लहराती मुट्ठियों को लय देती हैं।
गैर-बराबरी के खिलाफ व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई भेद न रखने वाले साहिर का जन्म एक जागीरदार घराने में हुआ था। तब उनका नाम अब्दुलहई रखा गया था। मैट्रिक में पहुंचते-पहुंचते साहिर शेर कहने लगे थे। उनके भीतर विद्रोह और बगावत की भावना देश के हालात ने पैदा की। गवर्नमेंट कॉलेज लुधियाना में पढ़ाई के दौरान वह कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए थे।
कॉलेज में दाखिला और AISF से नजदीकी
मालवा खालसा हाई स्कूल से मैट्रिक करने के बाद साहिर ने 1937 लुधियाना के प्रतिष्ठित गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला लिया था। तब अविभाजित भारत के बाकी हिस्सों की तरह, लुधियाना में भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ असंतोष से उबल रहा था। जलियांवाला बाग नरसंहार की यादें अभी ताजा थीं। पूंजीपतियों और श्रमिक वर्ग के बीच संघर्ष से भारत में भी साम्यवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा था। दुनिया भर में युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। यह सब कुछ समाज के प्रति संवेदनशील साहिर को प्रभावित कर रहा था।
अक्षय मनवानी ने साहिर की जीवनी ‘द पीपल्स पोएट’ में अजायब चित्रकार के हवाले से लिखा है कि साहिर लुधियानवी कार्ल मार्क्स विचारों के गंभीर पाठक थे। फिर फैज अहमद फैज और जोश मलीहाबादी जैसे उर्दू शायर भी थे, जिनका साम्यवादी झुकाव था और जैसा कि साहिर ने स्वीकार किया, इन सब उन पर बहुत अधिक प्रभाव था।
कॉलेज में साहिर ने दर्शनशास्त्र और इतिहास का अध्ययन करने का विकल्प चुना। लेकिन जल्द ही उन्हें पता चल गया कि उनकी रुचि अर्थशास्त्र और राजनीति में अधिक है। वह इन विषयों की किताबें पढ़ने लगे। यह रास्ता उन्हें छात्र राजनीति की तरफ ले गया। कॉलेज में वह छात्र संघ के सदस्य बन गए और सक्रिय रूप से राजनीतिक कार्यों में भाग लेने लगे, इसका असर उनकी कविता पर भी दिखने लगा।
उर्दू शायर और लुधियाना में साहिर के दोस्त और प्रशंसक रहे कृष्ण अदीब की मानें तो कॉलेज के शुरुआती दिनों में कोई प्रकाशक साहिर को नहीं छापना चाहता था। हालांकि, ‘जहां मजदूर रहते हैं’ जैसी कविताएं ‘कीर्ति लहर’ नामक भूमिगत समाचार पत्र में एएच साहिर के नाम से प्रकाशित हुईं थी। ये कविताएं क्रांति के विचारों से ओतप्रोत थीं।
लगभग इसी समय 1937-38 में साहिर की मुलाकात ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के कई कार्यकर्ताओं से हुई। AISF का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) से संबद्ध है, इसकी स्थापना 1930 के दशक के मध्य में हुई थी। यह स्टूडेंट विंग भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने को प्रतिबद्ध थी। यह किसी भी रूप में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध करती थी।
AISF के उद्देश्य साहिर के अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक झुकाव के अनुरूप थे। विचार मिल रहे थे, इसलिए साहिर संगठन के कामों में सक्रिय हो गए। उन्होंने विभिन्न मंचों से छात्रों और कार्यकर्ताओं के सामने भाषण दिया। सभाओं में ऐसी कविताएं भी सुनाई, जिसके राजनीतिक अर्थ थे।

जब अंग्रेज अफसरों को मंच से ललकारा
अक्षय मनवानी की किताब ‘द पीपल्स पोएट’ के मुताबिक, कॉलेज के दिनों में साहिर लुधियानवी ने मंच से अंग्रेज अफसरों को ललकारा था। कॉलेज परिसर में एक समारोह का आयोजन किया गया था। समारोह में ब्रिटिश कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर शामिल हुए। कार्यक्रम में छात्र भी हिस्सा ले रहे थे। उस कार्यक्रम में साहिर को मंच से अपनी शायरी पढ़नी थी।
लेकिन जब मंच से शायरी सुनाने का समय आया, तो साहिर ने दर्शकों का अभिवादन करते हुए अपनी विशिष्ट जुझारू शैली में कहा, “जब तक यह यूनियन जैक (अंग्रेजी शासन का झंडा) हमारे सिर के ऊपर फहरा रहा है, न तो मैं और न ही मेरे दोस्त कविता में भाग लेंगे” कहने की जरूरत नहीं है कि साहिर के इस साहसिक काम ने मंच पर बैठे अफसरों और दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दिया।

मेल खाती वैचारिकी से प्रेम चढ़ा परवान
कॉलेज में जारी इंकलाब के दौरान ही साहिर इश्क में पड़े थे। शुरुआत में विपरीत लिंग के प्रति उनका अधिकांश संपर्क क्षणभंगुर ही रहा। लेकिन कुछ जुड़ाव इतने गंभीर थे कि उन्होंने साहिर के जीवन की दिशा ही बदल दी। इस तरह प्रेम में पड़ा कवि, इंकलाब के साथ-साथ इश्क भी लिखने लगा। युवा कवि के दिल में जगह बनाने वाली ऐसी पहली लड़की महिंदर चौधरी थीं।
महिंदर चौधरी कॉलेज के दिनों में साहिर की दोस्त थीं। वह लुधियाना के जाने-माने व्यक्तियों में से एक राम राज की बेटी थे। राम राज, पेशे से वकील और कांग्रेस पार्टी के सम्मानित सदस्य थे। साहिर और महिंदर के बीच का रिश्ता उनके राजनीतिक झुकाव के कारण परवान चढ़ा। अपने परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, महिंदर भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ थीं, लेकिन कभी खुलकर सामने नहीं आ सकीं।
अंग्रेजों के प्रति साहिर की नफरत के बारे में जानकर महिंदर उनकी ओर आकर्षित हुईं। वह उन्हें अपना आदर्श मानती थीं और उनके लेखन और कविता से प्रभावित थीं। महिंदर जो कहना चाहती थीं, लेकिन व्यक्त नहीं कर पाती थीं, उन भावनाओं को साहिर ने शब्द दिए। साहिर की कलम महिंदर की अंतरतम भावनाओं का माध्यम बन गई।
हालांकि, यह सिलसिला ज्यादा नहीं चला। महिंदर की तपेदिक से अचानक मौत हो गई। साहिर व्याकुल हो गये। लेकिन विडंबना मार्मिक है। महिंदर की मौत जहां प्रेमी युवक साहिर के लिए एक बड़ी व्यक्तिगत क्षति थी। वहीं इसने साहिर को एक लेखक के रूप में परिपक्व होने में मदद की। श्मशान घाट पर महिंदर के शरीर को आग की लपटों में भस्म होते देख, साहिर ने ‘मरघट की सरज़मीं’ कविता लिखी। यह कविता महिंदर के लिए उनके प्यार और दुःख का एक तीव्र प्रवाह बनी।
एक और प्रेम: कॉलेज से बेदखली की वजह!
महिंदर के निधन के बाद ईशर कौर नाम की एक खूबसूरत, आकर्षक युवा लड़की ने साहिर का ध्यान खींचा। ईशर ने शायद ही कभी किसी से बात की हो। वह आम तौर पर खोई-खोई सी रहने वाली लड़की थी। बाकी लड़कियों से थोड़ी अलग थी। साहिर घंटों तक उन्हें देखते रहते थे और वह उनसे नजरें मिलाने से बचने की कोशिश करती थी।
चूंकि साहिर कॉलेज यूनियन के अध्यक्ष थे, इसलिए उन्होंने ईशर को यूनियन द्वारा आयोजित एक समारोह में गाने के लिए कहा। उन्हें पहले से ही पता था कि ईशर बहुत अच्छा गाती हैं। ईशर इस अनुरोध से आश्चर्यचकित थी। उसने निमंत्रण ठुकरा दिया। उनके साफ इनकार से परेशान न होकर, साहिर ने ईशर से छात्रसंघ की गतिविधियों में भाग लेने का अनुरोध करना जारी रखा। अंततः वह मान गई। इनकार और इकरार के बीच की दूरियां मिट गईं। दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए।
जल्द ही पूरे कॉलेज में कथित अफेयर की कहानियां फैल गईं। ईशर को लगा इस तरह की चर्चा उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकती है। ईशर ने साहिर के साथ अपना रिश्ता खत्म करने का फैसला किया। उन्होंने साहिर से कहा कि वह उनसे दोबारा नहीं मिलेंगी। साहिर को अपनी जिंदगी से बाहर करने के बाद ईशर अपने हॉस्टल में घंटों रोती। हॉस्टल गवर्नमेंट कॉलेज के परिसर में ही था। ईशर को बार-बार रोते देखकर साहिर ने एक और रचना की- किसी को उदास देखकर
कविता ने अटकलों को और हवा दी। साहिर अब ईशर से अलग होना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने कॉलेज जाकर ईशर से मिलने का फैसला किया। छुट्टियों के कारण कॉलेज बंद था और हॉस्टल में बहुत कम लड़कियां थीं। किसी तरह साहिर ने ईशर से मुलाकात की। हालांकि इस गुप्त मुलाकात की जानकारी सार्वजनिक हो गई। बात प्रिंसिपल समेत कॉलेज अधिकारियों के कानों तक पहुंच गई। ईशर को कॉलेज से निकाल दिया गया और कुछ दिनों बाद साहिर ने भी गवर्नमेंट कॉलेज छोड़ दिया। इस कहानी का एक दूसरा वर्जन भी है। माना जाता है कि साहिर ने कॉलेज छोड़ा नहीं था बल्कि उन्हें भी निकाला गया था।
इस कहानी में एक अन्य एंगल यह है कि ईशर कौर, साहिर को निष्कासित करने का एक बहाना मात्र थी। असली कारण कुछ और ही था। साहिर की कविताओं के ‘देशद्रोही’ विषयों के कारण कॉलेज अधिकारी लंबे समय से परेशान थे। कुछ स्रोतों से पता चलता है कि साहिर ने लुधियाना के नजदीक स्थित सराभा नामक गांव में करतार सिंह सराभा की मृत्यु की स्मृति में आयोजित एक राजनीतिक रैली में भाग लिया था।
करतार सिंह एक शहीद थे, जो स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए थे। आरोप लगाया गया कि इस समारोह में साहिर ने जो कविता पढ़ी, उसके कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। कॉलेज से नाता टूटने के बाद साहिर 1943 में लाहौर चले गए।
शिक्षा व्यवस्था से मोहभंग
साहिर ने लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में एडमिशन लिया। बीए के अंतिम वर्ष में वह लाहौर स्टूडेंट्स फेडरेशन के अध्यक्ष बन गये। इस दौरान वह राजनीतिक कार्यों में कुछ ज्यादा ही एक्टिव थे। यही वजह रही कि वह कॉलेज प्रशासन की नजर में चढ़ गए और उन्हें परीक्षा देने की अनुमति नहीं मिली। साहिर को कॉलेज छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और पूरे एक साल शिक्षा से वंचित कर दिया गया।
अगले वर्ष उन्होंने लाहौर के इस्लामिया कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन तब तक उनका शिक्षा प्रणाली से मोहभंग हो गया था। उन्होंने बीए की परीक्षा दिए बिना ही इस्लामिया कॉलेज छोड़ दिया।