अंकिता भंडारी की निर्मम हत्या के बाद एक फिर उत्तराखंड में लागू अंग्रेजों के जमाने के रेवेन्यू पुलिस सिस्टम पर सवाल उठने लगा है। उत्तराखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां आज भी राजस्व विभाग के कर्मचारी और अधिकारी, जैसे- पटवारी, लेखपाल, कानूनगो और नायब तहसीलदार आदि पुलिस का काम करते हैं।
अंकिता भंडारी मामले को देख रहे पटवारी पर लड़की के पिता की शिकायत पर कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगा है। सीएम पुष्कर सिंह धामी के आदेशानुसार पटवारी को शनिवार को निलंबित कर दिया गया है।
उत्तराखंड के 60% इलाकों में नहीं है थाना
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उत्तराखंड के 61% इलाकों में आज भी कोई पुलिस थाना या पुलिस चौकी नहीं है। यानी राज्य का आधे से ज्यादा क्षेत्र उत्तराखंड पुलिस के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। उन इलाकों की सुरक्षा अंग्रेजों के जमाने रेवेन्यू पुलिस सिस्टम (Uttarakhand British Policing Period System) के हवाले है। जिन क्षेत्रों में यह व्यवस्था लागू है, वहां राजस्व विभाग के कर्मचारी और अधिकारी रेवेन्यू वसूली के साथ-साथ पुलिस का काम भी करते हैं।
किसी भी तरह का अपराध होने पर पटवारी, लेखपाल, कानूनगो और नायब तहसीलदार आदि FIR लिखते हैं। इन्हें के जिम्मे जांच-पड़ताल और अपराधियों की गिरफ्तारी का काम भी होता है। जबकि इन्हें पुलिसिंग के काम के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं मिली होती। न ही इस काम को करने के लिए पर्याप्त संसाधन मिलता है। हथियार तो दूर की बात है राजस्व पुलिस के पास लाठी तक नहीं होता।
क्यों लागू की गई थी राजस्व पुलिस की व्यवस्था?
1857 के सैन्य विद्रोह के घबराए अंग्रेजों को महसूस हुआ कि जनत पर प्रशासनिक शिकंजा मजबूत करने की जरूरत है। उन्होंने साल 1861 में ‘पुलिस ऐक्ट’ लागू किया। मैदानी इलाकों को तो पुलिसिया व्यवस्था ने अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन सुदूर कठिन पहाड़ी इलाकों को इस व्यवस्था से दूर रखा गया। इसके दो कारण थे। पहला यह कि तब पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी इलाकों की तुलना में अपराध कम था। दूसरा यह कि अंग्रेज पहाड़ों में पैसा खर्च नहीं करना चाहते थे। उन्होंने रेवेन्यू वसूली के लिए जाने वाले अधिकारियों को ही वहां की जिम्मेदारी सौंप दी।
अंग्रेजों के जाने के बाद भारत सरकार ने देश के विभिन्न हिस्सों में पुलिसिया व्यवस्था को सघनता से लागू किया। जरूरतों की पहचान कर, अलग-अलग तरह की चौकियां खोली गईं। महिलाओं के लिए अलग थाना खुले। कई तरह के हेल्पलाइन की शुरुआत हुई। पुलिस विभाग को लगातार आधुनिक तकनीक से लैस किया गया। समय-समय पर प्रशिक्षण दिया गया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया से उत्तराखंड का राजस्व पुलिस अछूता रहा। वहां आज भी समय रुका हुआ है।
‘खत्म हो राजस्व पुलिस सिस्टम’
साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद भी राज्य ने राजस्व पुलिस प्रणाली को जारी रखा गया। लेकिन पिछले कुछ सालों से इसे खत्म करने की मांग तेज हुई है। 2020 में प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में राज्य पुलिस मुख्यालय के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने राजस्व पुलिस व्यवस्था को समाप्त करने की आवश्यकता की वकालत करते हुए कहा था, ”अंग्रेजों ने इस प्रणाली की शुरुआत की थी क्योंकि पहाड़ी इलाकों में शायद ही कोई अपराध हुआ करता था। करीब एक दशक पहले तक स्थिति जस की तस बनी हुई थी। लेकिन अब, वहां भी गंभीर अपराध हो रहे हैं… राजस्व पुलिस उन्हें पकड़ने में विफल रहती है और फिर वे मामले नियमित पुलिस के पास जाते हैं। अगर मामले को नियमित पुलिस को ही देना है, तो राजस्व पुलिस को पूरी तरह से खत्म ही क्यों न कर दिया जाए?”
कोर्ट दे चुका है आदेश
राजस्व पुलिस का मामला जब उत्तराखंड हाईकोर्ट पहुंचा, तो कोर्ट ने हैरानी व्यक्त करते हुए कहा,”यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य का एक बड़ा हिस्सा राजस्व पुलिस के कारण नियमित पुलिस व्यवस्था से वंचित है। पूरे राज्य को आधुनिक पुलिस के दायरे में आना होगा।” साल 2018 में हाईकोर्ट ने राजस्व पुलिस की व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करने का आदेश दिया था। जस्टिस राजीव शर्मा और जस्टिस आलोक सिंह की खंडपीठ ने छह महीने के भीतर राजस्व पुलिस की व्यवस्था समाप्त कर सभी इलाकों को प्रदेश पुलिस के क्षेत्राधिकार में लाने का आदेश दिया था। आदेश के इतने साल बाद भी उस दिशा में कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई है।
क्यों मुश्किल है बदलाव?
2020 में प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स की ही रिपोर्ट में एक अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने दावा किया था कि ”यह आईएएस बनाम आईपीएस का मामला है। राज्य पुलिस ने सरकार से कहा है कि वह राजस्व पुलिस के तहत क्षेत्रों को संभालने के लिए तैयार है। लेकिन एक आईएएस बनाम आईपीएस कारक भी है। आईएएस लॉबी को लगता है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था से आधे से ज्यादा राज्य का नियंत्रण पुलिस के पास नहीं बल्कि उनके पास है। लेकिन राज्य में एक समान पुलिस व्यवस्था होनी चाहिए।”
हालांकि, उत्तराखंड के सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक आलोक बी लाल इसे दूसरी तरह से देखते हैं। उनका कहना था कि ”आईएएस बनाम आईपीएस कारक से अधिक यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का मामला है।”