उत्तराखंड का लैंसडाउन (Lansdowne) शहर अब ‘जसवंतगढ़’ (Jaswantgarh) के नाम से जाना जाएगा। लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड ने 1962 की लड़ाई के हीरो और महावीर चक्र विजेता राइफलमैन जसवंत सिंह के नाम पर शहर का नाम रखने का फैसला लिया है। आइए एक नजर इस पहाड़ी शहर के इतिहास, उस शख़्स जिसके नाम पर शहर का नाम पड़ा था और जसवंत सिंह पर डालते हैं…

कैसे पड़ा ‘लैंसडाउन’ नाम?

लैंसडाउन (Lansdowne) उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में आता है। इस शहर का नाम लॉर्ड लैंसडाउन के नाम पर पड़ा था, जो साल 1888 से 1894 तक भारत में ब्रिटेन के वायसराय थे। लॉर्ड लैंसडाउन (Lord Lansdowne) बाद में कनाडा के वायसराय भी बने। लैंसडाउन की गिनती ब्रिटिश हुकूमत के कद्दावर नेताओं में थी। भारत में करीब 6 साल के कार्यकाल के बाद वे ब्रिटेन सरकार में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (वॉर) और सिक्रेटरी ऑफ स्टेट (विदेश मामले) भी रहे। बाद में हाउस ऑफ लार्ड्स के नेता भी रहे।

‘बांटो और राज करो’ की नीति को बढ़ाने वाला शख़्स

लॉर्ड लैंसडाउन के वायसराय रहते ही साल 1891 में मणिपुर में भीषण हिंसा फैली थी। तब इसी बेरहमी से दबा दिया गया था। लैंसडाउन ने भारत में ब्रिटिश हुकूमत की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को बढ़ावा दिया और हिंदू-मुस्लिमों के बीच दरार डाली थी।

लैंसडाउन (Lansdowne) बनने की कहानी

लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड के मुताबिक साल 1886 में ब्रिटिश फौज के कमांडर इन चीफ, फील्ड मार्शल सर एफ एस रॉबर्ट्स ( Field Marshal Sir FS Roberts) ने अलग गढ़वाल रेजीमेंट तैयार करने का फैसला लिया। जब रेजीमेंट बनी तो रेजिमेंटल सेंटर और ट्रेनिंग के लिए जिस पहाड़ी शहर का चुनाव हुआ, उसका नाम ‘कालुनडंडा’ (Kalundanda) हुआ करता था। लेफ्टिनेंट कर्नल ईपी मेनवॉरिंग (Lt Col EP Mainwaring) की अगुवाई में 4 नवंबर 1887 को गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन यहां पहुंची। फिर 21 सितंबर 1890 को कालुनडंडा का नाम बदलकर तत्कालीन वायसराय के नाम पर ‘लैंसडाउन’ रख दिया
गया।

लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड के मुताबिक यह तृतीय श्रेणी का कैंड बोर्ड है और कुल 1503.8 एकड़ में फैला है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल सिविलियन और सैन्य आबादी को मिलाकर शहर की कुल 5,667 है।

कौन थे राइफलमैन जसवंत सिंह?

अब बात करते हैं राइफलमैन जसवंत सिंह की, जिनके नाम पर इस शहर का नाम रखा जा रहा है। जसवंत सिंह ने साल 1962 में चीन से युद्ध के दौरान अदम्य साहस का परिचय दिया था। जब चीन से लड़ाई हुई तब जसवंत सिंह गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन का हिस्सा हुआ करते थे। 17 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना ने नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पर हमला किया तब जसवंत सिंह की बटालियन ने दो बार चीनियों को खदेड़ दिया। बाद में तीसरी बार चीनी सेना मीडियम मशीन गन (MMG) लेकर लौटी और भारतीय सैनिकों पर भीषण गोलीबारी करने लगी।

तब जसवंत सिंह ने चीनी सेना की मशीनगन को शांत करने का फैसला लिया। लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गोसाई ने राइफलमैन जसवंत सिंह को कवर फायर दिया और वे चीनी सेना के करीब पहुंच मशीन गन पर ग्रेनेड फेंकने में सफल रहे। लेकिन वापस लौटते हुए गोसाई और नेगी शहीद हो गए। जबकि राइफलमैन जसवंत सिंह बुरी तरह घायल हो गए थे।

शहीद हो गए लेकिन पोस्ट नहीं छोड़ी थी

बाद में चीनी सेना के भीषण हमले के बाद जसवंत सिंह की कंपनी उस पोस्ट से पीछे हट गई, लेकिन वह अकेले उस पोस्ट पर डटे रहे। स्थानीय लोग बताते हैं कि दो जसवंत सिंह की बहादुरी देख वहीं की दो लड़कियों ने उनकी मदद का फैसला किया, जिसमें से एक शहीद हो गई थी और दूसरी को चीनी फौज ने बंधक बना लिया था। राफलमैन जसवंत सिंह अपनी पोस्ट आखिरी सांस तक डटे रहे और वहीं शहीद हो गए। बाद में उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया। जिस पोस्ट पर जसवंत सिंह शहीद हुए थे, उसे जसवंत गढ़ पोस्ट के नाम से जाना जाता है।