सेना की संरचना का सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक संगठन पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। अग्निपथ योजना एक प्रमुख संरचनात्मक सुधार है। इसका असर सशस्त्र बलों और समाज दोनों पड़ना हैं। सशस्त्र बलों में कुछ सुधार और बदलाव की लम्बे समय से जरूरत थी। बड़े सुधारों का पर संदेह करते समय सुधार की जरूरतों का आकलन करना चाहिए। लेकिन कभी-कभी यथास्थिति को बनाए रखने का हमारा पूर्वाग्रह ऐसा करने नहीं देता। अग्निपथ के बार में यह कहना होगा कि यह सुधार का राजनीतिक भ्रम पैदा करने के बारे में उतना ही है, जितना कि यह सशस्त्र बलों की जरूरतों को पूरा करने के बारे में है। इसलिए सुधार की इस गुगली को बहुत सावधानी से समझने की जरूरत है।

ये समझना मुश्किल नहीं है कि इस सुधार की जरूरत राजनीतिक अर्थव्यवस्था की विफलता के कारण पड़ी है। मौजूदा सत्तारूढ़ सरकार ने ही लोकसभा चुनाव में सशस्त्र बलों के पेंशन के मुद्दे का राजनीतिकरण किया था। परिणामस्वरूप वन रैंक वन पेंशन रिफॉर्म देश पर एक बड़ा वित्तीय बोझ बन गया। इससे सीख मिलती है कि लोकलुभावनवादी मुद्दों के कारण संस्थानों को लम्बे समय तक भारी लागत उठाना पड़ता है। हालांकि कभी-कभी राजकोषीय संकट के बहाने रचनात्मक सुधार किया जाता है। लेकिन इस मामले मे ऐसा कुछ नहीं दिख रहा। हां, ये जरूर है कि जब चीन और दूसरे देशों में पावर के लिए कंपटीशन चल रहा है, तब देश ने ये योजना लाकर संकेत दिया गया है कि हमारे पास बड़े खेल के लिए वित्तीय संसाधन नहीं हैं।

दूसरी बात ये कि सशस्त्र बलों को सच में दो मूलभूत बदलावों की आवश्यकता थी। पहला- कर्मचारियों पर निर्भरता कम कर टेक्नोलॉजी की तरफ बढ़ना। दूसरा- छोटी अवधि के सैनिकों की नियुक्ति। दोनों प्रशंसनीय लक्ष्य हैं। लेकिन क्या यह उन्हें हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका है? टेक्नोलॉजी बनाम सैनिकों का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिसे सरकार को अपनी शर्तों पर निपटाना चाहिए। इसके लिए पेंशन बिल में कटौती की शर्त को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। तकनीक जमीन पर सैनिकों की जगह ले सकती है। अफगानिस्तान से लेकर यूक्रेन तक हर हालिया युद्ध उदाहरण है। हालांकि एक सवाल ये भी है कि कहीं अग्निपथ के जरिए होने वाली भर्तियों से सेना के पास अनुभवहीन सैनिकों की फौज तो नहीं हो जाएगी जैसा कि लेफ्टिनेंट जनरल पीआर शंकर ने अपने लेख ‘टूर ऑफ ड्यूटी: द किंडरगार्टन आर्मी’ में बताया है?

अग्निपथ में एक प्रमुख सुधार राज्य आवंटन के बजाय अखिल भारतीय आधार पर होने वाली भर्ती है। यह अच्छी बात हो सकती है। लेकिन दो बातों का ध्यान रखना होगा। सबसे पहली बात तो ये कि लोकतंत्र में निहित एक संस्था के रूप में भारतीय सेना की सफलता कुछ हद तक क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने और पूरे भारत की सेना बनने की क्षमता से आई है। दूसरी बात ये कि अखिल भारतीय भर्ती के लिए सेना में बड़े पैमाने पर संगठनात्मक और सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता होगी।

अब अंत में समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की बात कर लेते हैं। यदि सेना का अनुभव इतना शानदार है कि उसके बाद कोई भी सिविलियन वाली नौकरी उसके उद्देश्य या काम करने की स्थिति से मेल नहीं खाती है, तो आप बड़ी संख्या में युवाओं को हताशा करेंगे। दूसरी ओर यदि युवाओं के लिए 4 की यह नौकरी एक महान अनुभव नहीं साबित होती है, मामला सिर्फ प्रोफेशनल रह जाता है तब भी आप संभावित रूप से बहुत सारे युवाओं का सैन्यीकरण कर रहे हैं। वो सैन्य अनुशासन के भविष्य की सुरक्षा के बिना। समाज के सैन्यीकरण की संभावना के पर्याप्त सबूत हैं जो समय से पहले सेवामुक्त सैनिकों से आते हैं। सेना में जो कुछ भी होता है, उसके बहुत गहरे सामाजिक निहितार्थ होते हैं, और अगर इसे अच्छी तरह से संभाला नहीं गया, तो यह आग से खेलना साबित हो सकता।

सशस्त्र बलों को सुधार की जरूरत है। समर्थन की जरूरत है। लेकिन सुधारों को एक ठोस सामाजिक, पेशेवर, संस्थागत और रणनीतिक तर्क द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए। आँख बंद करके जय-जयकार करने की तुलना में संदेह की एक खुराक देशभक्ति का एक बेहतर कार्य हो सकता है, खासकर यदि आप सुधारों को सफल बनाना चाहते हैं।