4 अगस्त से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) अदालत के आदेश पर वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे (वैज्ञानिक जांच/खुदाई) कर रहा है, ताकि “यह पता लगाया जा सके कि क्या वर्तमान संरचना का निर्माण एक पहले से मौजूद हिंदू मंदिर की संरचना किया गया है।”
ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में स्थित है। ऐतिहासिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि इसे 17वीं शताब्दी में औरंगजेब के आदेश पर मूल काशी विश्वनाथ मंदिर को नष्ट करने के बाद बनाया गया था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले सप्ताह कहा था कि मुस्लिम पक्ष को ‘ऐतिहासिक गलती’ स्वीकार करनी चाहिए और समाधान का प्रस्ताव देना चाहिए।
संघ परिवार ने काशी-विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के हालिया बहस में खुद को शामिल नहीं किया है। हालांकि, आरएसएस ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद से भी पहले साल 1959 में काशी का मुद्दा उठाया था।
कैसे हुई थी शुरुआत?
साल 1959 में जब पहली बार हिंदू मंदिरों की ‘वापसी’ का मुद्दा उठाया गया था, तो केवल काशी विश्वनाथ का ही उल्लेख किया गया था – अयोध्या में राम जन्मभूमि या मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि का नहीं। आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (ABPS) की वार्षिक बैठक में “मस्जिदों में तब्दील मंदिरों के मुद्दे” पर एक प्रस्ताव अपनाया गया।
प्रस्ताव में कहा गया था, “भारत में कई असहिष्णु और अत्याचारी विदेशी हमलावरों और शासकों ने पिछले एक हजार वर्षों के दौरान कई हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया… ऐसे सभी मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर का विशेष स्थान है। सभी हिंदुओं की भक्ति और आस्था के केंद्र के रूप में इसकी अद्वितीय स्थिति के कारण… सभा (ABPS) उत्तर प्रदेश सरकार से इस मंदिर को हिंदुओं को वापस करने के लिए कदम उठाने का आग्रह करती है…”
1980 के दशक में अयोध्या की तरफ किया रुख?
1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में लगभग 150 दलित परिवारों ने जाति उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम धर्म अपना लिया था। इस घटना ने आरएसएस को गहरी चिंता में डाल दिया। 1981 में आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल (ABKM) की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि “पूरे हिंदू समाज को आंतरिक जातिगत मतभेदों और अस्पृश्यता की हानिकारक प्रथा को खत्म करना होगा और एक एकल सजातीय परिवार के रूप में खड़ा होना होगा, ताकि उपेक्षित और दलित वर्गों के लिए हिंदू धर्म में समानता, सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित हो सके।”
मीनाक्षीपुरम की घटना ने आरएसएस की हिंदू पुनर्जागरण परियोजना की गतिशीलता को बदल दिया। अशोक सिंघल को आपातकाल के बाद कानपुर में सम्भाग प्रचारक के पद से दिल्ली (और हरियाणा) के प्रांत प्रचारक के रूप में स्थानांतरित किया गया था। फिर उन्हें विश्व हिंदू परिषद (विहिप ) में तैनात किया गया।
सिंघल ने ही संघ परिवार का ध्यान अयोध्या की ओर केंद्रित कर दिया। 1984 में विहिप की बैठक में राम जन्मभूमि को ‘मुक्त’ करने का प्रस्ताव पारित किया गया। उस वर्ष विहिप की पहली धर्म संसद ने ‘अयोध्या, मथुरा और काशी’ से कुल तीन मस्जिदों को हटाने की मांग की।
अयोध्या पर बढ़ा फोकस
15 मार्च, 1985 को अपने एबीपीएस में आरएसएस ने कहा कि “राम जन्मभूमि अयोध्या, कृष्ण जन्मभूमि मथुरा और विश्वनाथ मंदिर काशी हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र स्थान हैं।” लेकिन संघ की मांग अयोध्या पर केंद्रित थी क्योंकि उसे “उम्मीद थी कि यूपी सरकार को सच्चाई का एहसास होगा” और सरकार अयोध्या में विवादित स्थल को उसके ‘असली मालिक’ को लौटा देगी।
9-11 जून, 1989 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा ने कहा कि “लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए, और राम जन्म स्थान हिंदुओं को सौंप दिया जाना चाहिए।” पालमपुर प्रस्ताव में काशी और मथुरा का कोई जिक्र नहीं था।
1989 और 1990 में एबीकेएम और 1991 में एबीपीएस का ध्यान सिर्फ अयोध्या पर केंद्रित रहे। 1994 में एबीपीएस ने केंद्र से कहा कि “अधिग्रहित भूमि का टुकड़ा तुरंत श्री राम जन्मभूमि न्यास को सौंप दिया जाए…” लेकिन काशी और मथुरा के मंदिरों का उल्लेख नहीं किया गया।
1998-2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकारों ने अयोध्या मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया, और भाजपा न्यायिक प्रक्रिया में अपना विश्वास रखती दिखाई दी। जुलाई 2003 में अपनी रायपुर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा ने एनडीए के अन्य सहयोगियों और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के समर्थन के बिना अयोध्या पर कानून का रास्ता अपनाने में असमर्थता जताई।
2003: काशी-मथुरा
2003 में आरएसएस ने 1959 के बाद पहली बार अयोध्या के साथ-साथ काशी और मथुरा का भी उल्लेख किया। उस वर्ष एबीकेएम ने “अयोध्या, मथुरा और काशी के पवित्र तीर्थस्थलों की बहाली के लिए हिंदू समाज की उचित मांग को समर्थन” दिया।
तब एबीकेएम ने कहा था, “भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान शंकर भारत की सदियों पुरानी सभ्यता, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान के प्रतीक हैं। इन पवित्र स्थानों के प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना स्वतंत्र भारत का परम कर्तव्य है… स्वतंत्रता के तुरंत बाद देशवासियों को सोमनाथ के गौरव की पुनर्स्थापना की याद दिलाना यहां अप्रासंगिक नहीं है। इसी तर्ज पर तीन अन्य महत्वपूर्ण पवित्र स्थानों – अयोध्या, मथुरा और काशी का भी जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए।
एबीकेएम ने तब, “मुस्लिम नेतृत्व से ऐतिहासिक अवसर का लाभ उठाने और अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों पर अपना दावा छोड़ने का आह्वान किया ताकि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए आपसी सद्भावना और सम्मान का मार्ग प्रशस्त हो सके।”
हालांकि, आरएसएस ने इसके बाद फिर से काशी और मथुरा पर उतना ध्यान नहीं दिया। जून 2022 में आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने “हर मस्जिद में एक शिवलिंग की तलाश” की आवश्यकता पर सवाल उठाया और कहा कि आरएसएस इन मुद्दों पर कोई अन्य आंदोलन शुरू करने के पक्ष में नहीं है। भागवत ने कहा था, “…हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना? ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धाएं हैं। वह परंपरा से चलती आई हैं, हम कर रहे हैं ठीक है। परंतु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?”