भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों का जेल जाना बेहद आम था। आजादी के दीवाने जेल की सजा को ‘जेल यात्रा’ कहा करते थे। हालांकि नेताओं की आत्मकथा या उनसे जुड़ी रिपोर्ट को पढ़ते हुए पता चलता है कि अंग्रेजों के समय कारावास की सजा कठोर हुआ करती थी। 

आजादी की लड़ाई के अग्रणी नेताओं में से एक, पंड‍ित जवाहर लाल नेहरू तक को जेल में सश्रम सजा काटना होता था। सावरकर को कुख्यात सेल्यूलर जेल में रखा गया था। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि अधिकतर स्वतंत्रता सेनानी जेल में रहते हुए भी अपने अभियान को किसी न किसी रूप में जारी रखते थे।

किसी ने जेल में रहते हुए लोगों को उनका इतिहास बताया, किसी ने समाज को बेहतर बनाने के लिए वैचारिक लेख लिखा, तो किसी ने हिंदुत्व की परिभाषा गढ़ी। जवाहर लाल नेहरू, वि‍नायक दामोदर सावरकर और भगत स‍िंंह ने जेल में रहते हुए अपने अभ‍ियान को क‍िस तरह आगे बढ़ाया, पेश है उसकी एक झलक:

नेहरू ने लिखी ‘भारत एक खोज’

आजादी की लड़ाई में जवहारलाल नेहरू दिसंबर 1921 से मार्च 1945 तक 20 बार जेल गए। उन्होंने अपने जीवन के करीब साढ़े नौ साल जेल में बिताए। हालांकि इस दौरान भी नेहरू ने लोगों को जागृत करने का अभियान जारी रखा। उन्होंने अपनी लगभग सारी पुस्तकें जेलों में ही लिखीं। भारत सरकार की वेबसाइट के मुताबिक, नेहरू ने अपनी ‘आत्मकथा’ लेखन का कार्य 14 फरवरी 1935 को अल्मोड़ा जेल में रहते हुए पूर्ण किया था।

1944 में अप्रैल-सितंबर तक अहमदनगर फोर्ट जेल में रहते हुए नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिखी थी। पांच माह के कारावास के दौरान अंग्रेजी में लिखे इस किताब का प्रकाशन 1946 में हुआ था। बाद में इसका हिंदी समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। हिंदी में यह ‘भारत एक खोज’ के नाम से प्रकाशित हुआ है।

नेहरू ने इस किताब में भारत के इतिहास को कहानियों, व्यक्तिगत अनुभवों और दार्शनिक सिद्धांतों की मदद से समझाया है। उन्होंने भारत की बहुविध संस्कृति, धर्म और जटिल अतीत को वैज्ञानिक दष्टिकोण से रूबरू कराया है। आज इस किताब को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है, जिसे अध्येता सिद्धांत के रूप में पढ़ते हैं।

भगत सिंह ने जेल से रचा सिद्धांत

दिल्ली के सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह आखिरी बार 8 अप्रैल 1929 को पुलिस हिरासत में लिए गए। करीब दो साल जेल में रखने के बाद उन्हें 23 मार्च 1931 को तय वक्त से पहले फांसी दे दी गई।

जेल में रहने के दौरान भगत सिंह ने राजनीतिक कैदियों के अधिकार के लिए 116 दिन की भूख हड़ताल की थी। वह कैद में रहते हुए भी लगातार  ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाते रहे। अंग्रेजों के खिलाफ उनका तेवर मरते दम तक नरम न हुआ। इस दौरान वह ‘हिंसा और अहिंसा’ विषय पर महात्मा गांधी से भी बहस करते रहे।

भगत सिंह ने जेल में रहते हुए ‘विद्यार्थियों के नाम पत्र’ लिखा, जिनमें उन्होंने नौजवानों को उनकी जिम्मेदारी बताई। 23 दिसंबर 1929 को जब क्रांतिकारियों ने वाइसराय की गाड़ी उड़ाने का असफल प्रयास किया, तो गांधी ने घटना की कटु आलोचना करते हुए ‘बम की पूजा’ नामकर ले लिखा। इसके जवाब में भगवतीचरण वोहरा ने ‘बम का दर्शन’ लेख लिखा, जिसे भगत सिंह ने अंतिम रूप दिया था।

भारत के नौजवान क्रांति का मतलब सिर्फ बम और पिस्तौल न समझे, इसके लिए उन्होंने ‘इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है’ जैसा लेख लिखा। भगत सिंह ने सांप्रदायिकता, अंधविश्वास और धार्मिक कर्मकांड से लोगों को अगाह करने के लिए ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लिखकर देश को संदेश दिया था। सिंह का आखिरी लेख ‘कौम के नाम सन्देश’ नाम से प्रसिद्ध है।

सावरकर ने जेल में गढ़ी थी ‘हिंदुत्व’ की परिभाषा

विनायक दामोदर सावरकर को अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के ‘अपराध’ में काला पानी की सजा हुई थी। वह 4 जुलाई 1911 को अंडमान के कुख्यात सेल्यूलर जेल पहुंचे थे, जहां वह 9 साल 10 महीने रहे। सावरकर के संस्मरण से ही पता चलता है कि वह सेल्यूलर जेल में शुद्धि का कार्यक्रम चलाते थे।

इस शुद्धि कार्यक्रम के दौरान उन्होंने मौका मिलने पर मुसलमानों को हिंदुओं में बदला। सावरकर द्वारा स्थापित हिंदू महासभा का भी यह मुख्य एजेंडा रहा है। हालांकि सावरकर पर किताब लिखने वाले अशोक कुमार पाण्डेय को सेल्यूलर जेल में अंग्रेजों की पाबंदियों के बीच धर्मांतरण का कार्यक्रम चलाने का प्रसंग यकीनी नहीं लगता।

पांच से अधिक दया याचिका लिखने के बाद सावरकर सेल्यूलर जेल से छूट गए थे। 1923 वह महाराष्ट्र के रतनागिरी और यरवदा जेल में थे। वहीं उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ नामक विवादित किताब लिखी। इसी किताब में सावरकर बताते हैं कि हिंदू कौन है? इसी किताब में सावरकर ने पिृतभूमि और पुण्यभूमि की बात भी लिखी है।