स्वतंत्रता सेनानी, सत्याग्रही और प्रसिद्ध गांधिवादी विनोबा भावे का निधन 15 नवंबर 1982 को वर्धा में हुआ था। उनकी 87 साल जिंदगी का 35 वर्ष उस आजाद भारत में बीता था, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अंग्रेजों से संग्राम किया था।
इन 35 वर्षों में कुल सात आम चुनाव (Lok Sabha general elections) हुए, लेकिन विनोबा भावे ने किसी चुनाव में वोट नहीं डाला। वह चुनाव और चुनावी राजनीति से लगभग दूर ही रहे। उन्होंने सरकार या किसी नेता का कभी समर्थन किया। जिंदगी भर सामजिक मुद्दों के लिए आंदोलन चलाया।
विनोबा ने कभी किसी चुनाव में वोट तो नहीं डाला। लेकिन कई अवसरों पर राजनीति के प्रचलित स्वरूप की आलोचना जरूर की। इंदिरा के आपातकाल के बाद ‘अनुशासन पर्व’ के सवाल पर जवाब देते हुए कहा था, ”शासन के हिसाब से दुनिया चलेगी तो कोई समाधान नहीं मिलने वाला। एक समस्या सुलझेगी तो फिर उलझ जाएगी। यही तमाशा आज दुनियाभर में चल रहा है।
‘ए’ से ‘जेड’ तक, अफगानिस्तान से ज़ांबिया तक 300-350 शासन दुनिया में होंगे। फिर उनकी गुटबंदी चलती है। शासन की लीडरशिप में सिर्फ मारकाट मचती है और असंतोष बढ़ता है। शासन के आदेश के अनुसार चलनेवालों की यही हालत होगी। उसके बदले अगर आचार्यों के अनुशासन में दुनिया चलेगी तो दुनिया में शांति रहेगी।”
विनोबा के अनुयायी आज भी नहीं करते मतदान
भू-दान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे का आश्रम वर्धा शहर से लगभग 9 कि.मी. दूरी पर पवनार गांव स्थित धाम नदी के किनारे है। उन्होंने उसे साल 1934 में बनवाया था। आश्रम में आज भी विनोबा के कई अनुयायी रहते हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान दैनिक भास्कर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि विनोबा के आश्रम में रहने वाले उनके सभी 28 अनुयायी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेते। सभी के पास मतदान पहचान पत्र है लेकिन वह कभी किसी को वोट नहीं देते।
लोकल नेता भी इस बात को जानते हैं, इसलिए कोई आश्रम में वोट मांगने नहीं जाता। कुल मिलाकर बात यहा है कि चुनावी राजनीति के मामले में आचार्य विनोबा भावे के अनुयायी आज भी उनके विचारों पर चलने का दावा करते हैं।
राजसत्ता से रहे दूर फिर भी कहलाए ‘सरकारी संत’
यह प्रचलित मत है कि विनोबा भावे ने इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्थन किया था। उसे ‘अनुशासन पर्व’ बताया था। हालांकि यह पूरी सच्चाई नहीं है। दरअसल हुआ यह था कि इंदिरा गांधी के आपातकाल से कुछ माह पहले ही 25 दिसंबर, 1974 को विनोबा ने मौन धारण कर लिया था।
इंदिरा ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। नेताओं को जेल में डाल दिया गया। तरह-तरह की पाबंदियां लगा दी गईं। सत्ता के इस फैसले को चुनौती देते हुए विपक्ष को लीड कर रहे थे गांधीवादी नेता जय प्रकाश नारायण। वह लगातार इंदिरा सरकार को ललकार रहे थे।
इंदिरा सरकार की छवि लगातार खराब हो रही थी। अपनी छवि से दाग मिटान के लिए सरकार ने विनोबा से मिलने की योजना बनाई। तब गांधी की आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ा रहे आचार्य विनोबा से मिलने उनके पवनार स्थित ब्रह्म विद्या मंदिर पहुंचे वसंत साठे। तब साठे सूचना और प्रसारण मंत्री हुआ करते थे।
साठे मिलने तो पहुंच गए लेकिन विनोबा मौन धारण किए हुए थे। साठे को अपना जो कहना था, उन्होंने कहा। लेकिन विनोबा मौन धारण किए रहे। उन्होंने सिर्फ अपने पास रखे ग्रंथ महाभारत के उस अध्याय का शीर्षक साठे को दिखाया जिसमें लिखा था- ‘अनुशासन पर्व’
इसके बाद सरकार ने तुरंत यह प्रोपोगेंडा फैला दिया कि विनोबा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कह समर्थन किया है। जब विपक्षी खेमे को इसकी खबर हुई, तो उधर से भी बिना पूरी बात जाने संत विनोबा भावे को ‘सरकारी संत’ कहा जाने लगा।
विनोबा ने दिया जवाब
इमरजेंसी के ठीक छह महीने बाद 25 दिसंबर को विनोबा ने मौन व्रत तोड़ा और अपना पक्ष रहा। उन्होंने कहा, ”अनुशासन-पर्व शब्द महाभारत का है। परंतु उसके पहले वह उपनिषद् में आया है। प्राचीन काल का रिवाज था। विद्यार्थी आचार्य के पास रह कर बारह साल विद्याभ्यास करता था। विद्याभ्यास पूरा कर जब वह घर जाने निकलता था तब आचार्य अंतिम उपदेश देते थे। उसका जिक्र उपनिषद् में आया है- एतत् अनुशासनम्, एवं उपासित्व्यम् – यानि इस अनुशासन पर आपको जिंदगीभर चलना है।”