फिल्म बनने के बाद फिल्म निर्माता को सेंसर सर्टिफिकेट लेने के लिए सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) के नजदीकी ऑफिस में संपर्क करना होता है। इस सर्टिफिकेट के बिना फिल्म को दिखाया नहीं जा सकता। सर्टिफिकेट लेने से पहले निर्माता को बताना होता है कि वह यह फिल्म किन लोगों के लिए बना रहा है। CBFC (जिसे आम भाषा में सेंसर बोर्ड कहा जाता है) के कुल 9 ऑफिस हैं। ये दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलूरू, तिरुवनंतपुरम, हैदराबाद, कटक और गुवाहाटी में हैंं। इन ऑफिस को ऐसी अलग-अलग जगहों पर खोला गया है जहां अलग-अलग भाषा में फिल्में बनाने वाले लोग आराम से इन तक पहुंच सकें। मुंबई के ऑफिस में सबसे ज्यादा भीड़ रहती है। सेंसर बोर्ड में 22-25 सदस्य होते हैं। इसमें बुद्धिजीवी लोगों को लेने का दावा किया जाता है। ऐसे लोगों को लेने की बात की जाती है जो सिनेमा को अच्छा बनाने और उसके विकास के लिए काम कर सकते हैं। इस काम के लिए इन लोगों की साल में कुछ मीटिंग भी होती हैं।
सर्टिफिकेट लेने की प्रक्रिया: सेंसर बोर्ड में सबसे पहले जांच समिति फिल्म देखती है और तय करती है कि उसे U, U/A, और A में से किस केटेगरी में रखना है। अगर कमेटी द्वारा तय की गई केटेगरी से निर्माता खुश है तो कोई बात नहीं, पर अगर वह संतुष्ट नहीं है तो वह फिल्म दोबारा देखने की गुजारिश कर सकता है। ऐसे में एक नई कमेटी फिल्म देखेगी। इस केमेटी में बोर्ड का एक सदस्य भी होगा। दूसरी बार फिल्म देखने के दौरान ही फिल्म में कट लगाए जाते हैं। ऐसे में निर्मााता के पास मौका होता है कि बताए गए कट लगवाकर फिल्म के लिए वह सर्टिफिकेट ले ले जो वह चाहता हो।
दूसरी बार फिल्म को दिखाने के बाद भी अगर फिल्म निर्माता की मन मुताबिक केटेगरी नहीं मिल रही या फिर वह अपनी फिल्म में कट नहीं लगवाना चाहता तो वह Film Certification Appellate Tribunal (FCAT) में जाकर अपील कर देता है। दिल्ली में बनी यह कमेटी रिटायर्ड जजों की होती है। इसके लोग फिल्म निर्माता की बात सुनते हैं। ज्यादातर मामलों को FCAT निपटा देता है, पर अगर वहां से भी फिल्म निर्माता खुश नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। वैसे, इस प्रॉसेस में काफी कम लोग ही पड़ते हैं। ज्यादातर फिल्म निर्माताओं को पता है कि यह काफी लंबा चलने वाला प्रॉसेस है। अगर रिलीज की तारीख पास होती है तो पैसे के नुकसान, कर्जदारों का डर उन्हें सताने लगता है। ऐसे में वह वही सर्टिफिकेट लेकर काम चला लेते हैं जो सेंसर बोर्ड देता है।
हमारे सेंसर बोर्ड के साथ मुश्किल यह है कि वह अभी तक 1952 में बने नियमों के हिसाब से चल रहा है। येे सारे नियम अंग्रेजों द्वारा ही बनाए गए थे। लोग कई बार मांग कर चुके हैं कि इन नियमों को वक्त के हिसाब से बदला जाना चाहिए।
(लेखिका शुभ्रा गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस की फिल्म क्रिटीक और सेंसर बोर्ड की पूर्व सदस्य हैं।)