फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने सुनहरे परदे पर दर्दभरी भूमिकाएं इतने प्रभावी ढंग से निभाईं कि लोग उन्हें ट्रैजडी किंग कहने लगे। लेकिन दिलीप कुमार के वास्तविक जीवन की एक ट्रैजडी के बारे में कम ही लोग जानते हैं। ये वाकया तब का है जब दिलीप कुमार फिल्मों में नहीं आए थे। तब उन्हें लोग यूसुफ खान के नाम से ही जानते थे। दिलीप कुमार का जन्म 11 दिंसबर 1922 को पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का कारोबार के सिलसिले में मुंबई आकर रहने लगे थे। 1930 के दशक के मध्य में लाला गुलाम सरवर ने अपनी बीवी और सात बच्चों को भी मुंबई बुला लिया। दिलीप कुमार और उनके सभी भाई-बहन पिता का बहुत अदब करते थे। लेकिन दिलीप के पिता जब किसी मामूली सी बात पर उन पर खफा हो गए और इस वाकये ने दिलीप की जिंदगी बदल दी।
अपनी आत्मकथा “द सब्सटैंस एंड द शैडो” में इस घटना का जिक्र करते हुए दिलीप कुमार ने लिखा है, “मुझे ठीक तारीख याद नहीं लेकिन मैं किशोरावस्था में ही था जब आगाजी (पिता) से एक मामुली मतभेद के बाद अपनी सनक में पूना (अब पुणे) चला गया था। हमारे बीच कोई तीखी बहस या वैसा कुछ नहीं हुआ था। किसी छोटी सी बात पर वो अपना आपा खो बैठे थे। मुझे याद नहीं कि उस लम्हे में मुझे क्या हुआ था….मैंने उस दिन चुपचाप अपना घर छोड़ दिया था। मेरे दिल में गुस्से या बदले से ज्यादा आहत और अपमानित की भावना थी।”
दिलीप कुमार ने लिखा है कि उस समय दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। (दूसरा विश्व युद्ध सिंतबर, 1939 में शुरू हुआ था।) युद्ध के कारण उनके परिवार का कारोबार काफी प्रभावित हुआ था। उनकी बड़ी बहनों की शादी भी करनी थी। इसलिए दिलीप कुमार ने अपने पिता की मदद करने के लिए कोई रोजगार करने की सोची। उन्होंने तय किया कि जब तक वो कमाने नहीं लगते घर वापस नहीं जाएंगे। दिलीप कुमार ने लिखा है, “जब मैं पूना रेलवे स्टेशन पर उतरा तब भी मैं अंदर से आहत था और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आगाजी मुझ पर इस कदर नाराज क्यों हुए। अगर मेरे दिल की तकलीफ थोड़ी भी कम हो गई होती तो शायद मैं घर वापस चला गया होता क्योंकि मुझे पता था कि अम्मा मेरे लापता होने पर बदहवास हो जाएंगी।” दिलीप कुमार साबित करना चाहते थे कि वो अपने दम पर जी सकते हैं। दिलीप कुमार के अनुसार वो पूना इसलिए गए क्योंकि वो मुंबई से दूर था और वहां किसी द्वारा पहचाने की बहुत कम संभावना थी और वो वहां कोई भी रोजगार कर सकते थे।
इस वक्त तक दिलीप कुमार का उर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार हो चुका था। उनके इस प्रतिभा ने उनकी मुश्किल आसान कर दी। पूना पहुंचने तक दिलीप को तेज भूख लग गई थी। स्टेशन से वो सीधे एक ईरानी रेस्तरां में गए और वहां चाय और नमकीन बिस्किट मांगा। दिलीप कुमार ने ईरानी रेस्तरां के मालिक से फारसी में बात की जिससे वो खुश हो गया। दिलीप कुमार लिखते हैं, ” मैंने रेस्तरां के मालिक से पूछा कि क्या वो किसी दुकानदार को अस्टिटेंट या किसी और की जरूरत है। उसने मुझे थोड़ी ही दूर स्थित एक रेस्तरां में जाकर वहां के एंग्लो-इंडियन मालिक से मिलने के लिए कहा।” दिलीप कुमार ने एंग्लो-इंडियन मालिक के रेस्तरां में जाकर बताया कि उन्हें ईरानी रेस्तरां के मालिक ने भेजा है और उन्हें काम चाहिए। दिलीप कुमार की बात सुनकर रेस्तरां की मालकिन ने कहा, “ये लड़का अच्छी अंग्रेजी बोलता है। इसे कैंटीन ठेकेदार के पास भेज दो।”
जब दिलीप कुमार को पता चला कि सेना के कैंटीन ठेकेदार पेशावर का है तो वो पहले घबराए कि कहीं वो उनके पिता को जानता न हो। लेकिन जरूरत के चलते वो उससे मिलने को तैयार हो गए। जब दिलीप कुमार कैंटीन ठेकेदार ताज मोहम्मद खान के पास पहुंचे तो वो उनके पिता के एक मित्र का छोटा भाई निकला लेकिन उसने उन्हें पहचाना नहीं। ठेकेदार ने नौकरी के लिए उनसे कैंटीन के मैनेजर को एक दरख्वास्त लिखने को कहा। मैनेजर को धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने के कारण प्रभावित हुआ। उन्हें नौकरी मिल गई। दिलीप कुमार कैंटीन और सेना के कल्ब दोनों में कामधाम देखते थे। उन्हें सामान खरीदने और उनकी गुणवत्ता की जांच-परख करने का काम मिला था।
एक दिन कैंटीन के मैनेजर ने दिलीप कुमार से कहा कि कैंटीन का खानसामा नहीं है और सेना के मेजर जनरल नाश्ते पर आने वाले हैं। मैनेजर ने पूछा कि क्या वो कुछ बना सकते हैं। दिलीप कुमार ने कहा कि वो सैंडविच बना सकते हैं। मैनेजर ने झिझकते हुए उन्हें सैंडिविच बनाने की इजाजत दे दी। आखिरकार दिलीप की सैंडविच हिट साबित हुई। मेजर जनरल ने कैंटीन मैनेजर से सैंडविच की खूब तारीफ की। इस सफलता से उत्साहित होकर दिलीप कुमार ने मैनेजर से एक कोने में सैंडविच कॉर्नर खोलने की इजाजत मांगी। मैनेजर ने उन्हें इसकी इजाजत दे दी। दिलीप कुमार का सैंडविच कारोबार काफी सफल रहा। वो एक बड़ी से टेबल लगाकर सैंडविच बेचते थे। वो बाजार से ताजे फल, मक्खन और ब्रेड लाते थे। सैंडविच का कारोबार चल निकलने के बाद दिलीप कुमार ने अपने घर टेलीग्राम भेजकर अपने पूना में होने की खबर दी और तब उनके बड़े भाई अयूब उनसे मिलने आए।
कुछ ही समय बाद तक वो पांच हजार रुपये तक कमा चुके थे। रमजान नजदीक था वो मुंबई के लिए रवाना हो गए। ईद से कुछ दिन पहले बॉम्बे पहुंचे। जब अपनी मां को पैसे दिए तो वो डर गईं कि उनके पास इतने पैसे कहां से आए। दिलीप ने बताया कि ये उनके मेहनत की कमाई है। तब उनकी मां ने कुरान पर हाथ रखकर कसम खिलाई कि ये पैसे इज्जतदार तरीके से कमाए गए हैं। दिलीप ने जब कुरान पर हाथ रखकर कसम खाई तब जाकर उनकी मां को संतोष हुआ कि ये पैसे सही तरीके से कमाए गए हैं। इस घटना ने दिलीप कुमार की जिंदगी पर गहरा असर डाला। दिलीप ने स्वीकार किया है कि जव वो घर लौटने पर पहले से काफी बदल चुके थे और उन्हें भरोसा हो चुका था कि वो अपने दम पर सफलता हासिल कर सकते हैं। पूना से घर लौटने के कुछ ही दिनों बाद 1942 में दिलीप कुमार संयोगवश देविका रानी से मिले और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है।

