इस बार टाइगर (सलमान खान) इराक पहुंच गया है। क्यों? इसलिए कि वहां पचीस भारतीय नर्सें कैद में हंै। आइएससी (नाम असली नहीं लिया गया है लेकिन मतलब आइएसआइएस सीरिया आधारित कुख्यात आतंकवादी संगठन से है) ने उनको बंधक बना लिया है। भारत सरकार के पास उन नर्सों को छुड़ाने का समय बहुत कम है। सिर्फ सात दिन। सात दिनों के बाद अमेरिका वहां हमला करेगा क्योंकि उसे अपने उन अमेरिकियों का बदला लेना है जिसे आइएससी वालों ने मार दिया है। पर इतनी जल्दी भारत इन नर्सों को छुड़ा पाएगा? रॉ प्रमुख (गिरीश कर्नाड) को लगता है सिर्फ एक ऐसा शख्स है जो यह कर सकता है और वह है टाइगर। लेकिन सरकारी फाइलों में तो टाइगर मर चुका है (यानी कबीर खान निर्देशित ‘एक था टाइगर’ वाला टाइगर)। वास्तविकता यह है कि टाइगर जिंदा है और आस्ट्रिया में अपनी पत्नी जोया (पूर्व पाकिस्तानी खुफिया एजंसी वाली) और अपने आठ साल के बेटे जूनियर के साथ रहता है।
शुरू में तो टाइगर ना नुकुर करता है लेकिन आखिरकार वहां जाता है। क्या करे? देशभक्त जो है। पर उसके पास अपनी टीम है। यानी रॉ की टीम से वह काम नहीं लेता। अब जब टाइगर वहां पहुंचता है धड़ाम धुड़ूम काफी होता है। यानी फिल्म में जबर्दस्त एक्शन सीन हैं। एक सीन में टाइगर घोड़े पर बैठकर मोटराइकिल और जीपों में बैठे आतंकवादियों को मारता चला जाता है। पर एक जगह वह फंस भी जाता है। फिर उसे छुड़ाने कौन आता है? आता नहीं बल्कि आती है। जोया। टाइगर की बीवी। वो इसलिए कि सिर्फ पचीस भारतीय नर्सें ही नहीं कुछ पाकिस्तानी नर्सें भी वहां बंधक है। जोया को भी देशभक्ति दिखानी है। तो इस तरह ये अभियान रॉ और एसआइएस (पाकिस्तानी खुफिया एंजसी) का संयुक्त अभियान बन जाता है।
यानी भारत और पाकिस्तान दोनों मिलकर इस आतंकवाद विरोधी अभियान को अंजाम देते हैं और दोनों देशों के झंडे इस रेगिस्तानी इलाके में फहरते हैं। दरअसल इस फिल्म का घोषित और अघोषित संदेश यही है कि दोनों देशों को करीब आना चाहिए क्योंकि आतंकवाद के शिकार दोनों हैं। फिल्म पूरी तरह से सलमान खान के करिश्मे को उभारने वाली है। इसीलिए कुछ अविश्वसनीय दृश्य भी हैं। इन में एक तो वो है जिसमें टाइगर कई भेड़ियों का एक साथ मुकाबला करता है और उनसे खुद को और अपने बेटे को भी बचाता है। हालांकि वह चाहता तो उन भेड़ियों को मार भी सकता था। लेकिन बेटे का कहना है वह अपने पापा को असली हीरो तभी मानेगा, जब वह भेड़ियों को मार कर नहीं बल्कि उनको मात देकर दोनों को बचाएगा। टाइगर ऐसा करता है क्योंकि भेड़िये आखिरकार भेड़िए ठहरे और टाइगर टाइगर। ‘टाइगर जिंदा है’ में कुछेक एक्शन सीन कैटरीना कैफ के भी हैं। कैटरीना के साथ सलमान का एक रोमांटिक गाना भी है। मगर उसमें ज्यादा दम नहीं है। कम-से-कम इस फिल्म में कैटरीना सिर्फ अपने एक्शन दृश्यों में ही फबती हैं। बाकी के किरदार भी अपनी अपनी भूमिकाओं में जमते हैं।
परेश रावल ने एक ऐसे शख्स का किरदार निभाया है, जो इराक में मजदूरों का ठेकेदार है और साथ ही बेहद धूर्त भी। आखिर में पता चलता है कि उसकी असलियत क्या है। आइएससी प्रमुख उस्मान की भूमिका में सज्जाद डेलाफ्रूज ने जिस किरदार को निभाया है वो खूंखार भी हैं और शांत भी। सज्जाद भारतीय मूल के अभिनेता नहीं हैं। वे अपनी आतंकवाद प्रमुख की भूमिका में फिट बैठते हैं। उनके लहजे में अरबीपन है।
फिल्म अपने अंदाज में यह भी कहती है कि मध्यपूर्व के देशों में इस्लामी आतंकवाद इसलिए जन्मा और बढ़ा कि उसके पीछे बहुराष्ट्रीय मुनाफाखोर कंपनियां और कुछ देश हैं, जो तेल के लिए इस इलाके को अशांत रखते हैं और अपने यहां के हथियारों को बेचना चाहते हैं। बिना युद्ध के हथियार नहीं बिकते। इसलिए दुनिया को तो लगता है कि वहां युद्ध हो रहा है पर दरअसल वहां जो हो रहा है सब व्यापार है और इसी के वास्ते आम लोग मारे जा रहे हैं।
आम आदमी मर रहा है और व्यापारी मजे कर रहे हैं। इस तरह ये फिल्म अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की पेचीदगियों को भी उजागर करती है। पर हल्का-सा। फिल्म का असली मकसद सलमान खान के उस जादू को बरकरार रखना है जिसका अनुमान और आकलन सिनेमा हॉलों की टिकट खिड़की पर होता है। और हां, इस बार भी टाइगर मरता नहीं। वह जिंदा है। किसी अगली फिल्म में फिर से आने के लिए।