The Sky is Pink Movie Review: निर्देशकः शोनाली बोसः कलाकार- फरहान अख्तर, प्रियंका चोपड़ा, जायरा वसीम, रोहित सर्राफ
2015 में दिल्ली से लगे गुड़गांव यानी आज के गुरुग्राम की रहनेवाली 18 साल की आशा चौधरी का निधन हुआ था। आशा को एक गंभीर लाइलाज बीमारी थी। फिर भी उस उम्र तक उसने एक भरपूर जिंदगी जी। वो एक मोटिवेशनल स्पीकर थी और जिंदगी को सकारात्मकता से जीने का संदेश देती थी। उसकी एक किताब भी ‘माई लिटिल एफीमेनीज’ नाम से प्रकाशित हुई थी। निर्देशक शोनाली बोस की यह फिल्म उसी के जीवन पर आधारित है। बेशक आशा की कहानी प्रेरणादायी है। पर सोचने की बात है कि क्या फिल्म भी वैसी ही है? इसका जवाब है कुछ हद तक। असल में लंबी खींच जाने की वजह से फिल्म कुछ जगहों पर बोर भी करती है। अगर निर्देशक ने इसे थोड़ा चुस्त किया होता तो शायद यह फिल्म कुछ बेहतर होती।
आशा का किरदार जायरा वसीम ने निभाया है। फरहान अख्तर ने आशा के पिता नीरेन चौधरी की भूमिका निभाई है। प्रियंका चोपड़ा इसमें आशा की मां अदिति चौधरी बनी है और रोहित सर्राफ आशा के भाई। फिल्म में आशा चौधरी का परिवार दिल्ली के चांदनी चौक में रहता है। आशा को रेयर इम्यून डिफिसिएंसी सिंड्रोम नाम की बीमारी हो जाती है, जो एक तरह से लाइलाज है। इस बीमारी में मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है। हालांकि आशा के लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना कम है। फिर भी उसके माता-पिता उसका इलाज कराने लंदन जाते हैं। फिल्म का काफी हिस्सा फ्लैशबैक को सहारे आगे-पीछे होता रहता है आशा की कहानी के साथ नीरेन और अदिति के प्रेम और विवाह के आरंभिक दिन भी इसमें हें। आशा की एक बहन भी थी तान्या। वो भी बहुत कम उम्र में चल बसी थी। ये सारे प्रसंग फिल्म में गुंथे हुए हैं।
इसमें संदेह नहीं कि यह फिल्म एक परिवार की जिंदगी में आने वाली खुशी और गम के लम्हों को दिखाती है। साथ ही इसमें एक जीवन दर्शन भी है, वो है परेशानियों और कठिनाइयों के बावजूद जिंदगी को जीने के जज्बे को रेखांकित करना। फिल्म में दर्द और पीड़ा दो स्तरों पर है। एक तो आशा को ये मालूम है कि उसे अब ज्यादा जीना नहीं है और दूसरे माता-पिता के स्तर पर, जिनको भी ज्ञात है कि बेटी अब बचनेवाली नहीं है। फिर भी जीवन संभावनाओं के सहारे चलती है और यही इस फिल्म के मूल में है। खैर ये सब तो हुआ फिल्म का वैचारिक पहलू।
निर्देशक ने इसे कई जगहों पर हल्का-फुल्का भी रखा है और इसमें हंसी और गुदगुदी के लिए भी कई अवसर हैं। लेकिन बीमारी पर केंद्रित होने के कारण कुछ जगहो पर जरूरत से ज्यादा संजीदगी दिखती है। जहां तक अभिनय का सवाल है, इसमें फरहान और प्रियंका एक ऐसे दंपति के रूप में आए हैं, जो अपनी संतान की खुशी के लिए बहुत कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं। पर इसी का दूसरा पहलू यह भी है कि दोनों यानी प्रियंका और फरहान अब फिल्मी दुनिया में माता-पिता की भूमिकाओं में स्टीरियोटाइप हो सकते हैं। फरहान के लिए तो वैसे भी हीरो के रूप में बॉलीवुड में कोई संभावना नहीं बची है इसलिए उनको पिता, चाचा या ताऊ के रोल ही मिलेंगे। जायरा का अभिनय बेहतरीन है लेकिन अब वे भी ब़ॉलीवुड को अलविदा कर चुकी है। यही इस फिल्म की कमजोरी है क्योंकि विदा होते लोग दुख तो देते हैं पर नेपथ्य में भी चले जाते हैं।