बॉलीवुड के शुरूआती दौर में महिलाएं फिल्मों में काम करने के लिए राजी नहीं थीं। सन 1913 में दादा साहब फाल्के जब पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बना रहे थे। उस समय कोई महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई और उन्हें अन्ना सालुंके नामक पुरूष से महिला का किरदार अदा करवाना पड़ा था।

भारतीय फ़िल्मकारों को उस समय विदेश से अभिनेत्रियों को लाना पड़ा, जबकि यहूदी समाज अपने ढांचे में सर्वाधिक मॉडर्न था और उनकी महिलाओं को यहां आकर फ़िल्मों में काम करने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसी दौरान भारतीय सिनेमा को रूबी मायर्स उर्फ़ सुलोचना जैसी कलाकार मिली जो फिल्मों में अभिनय के लिए हीरो से 50 गुना ज्यादा फीस लेती थीं।

कौन हैं रूबी मेयर्स उर्फ़ सुलोचना: रूबी मेयर्स भारत में रहने वाली यहूदी थीं। वह हिंदी तक भी ठीक से नहीं बोल पाती थी; लेकिन फिर भी सुलोचना के नाम से मशहूर रूबी मेयर्स अपने जमाने की सबसे मंहगी अभिनेत्री थीं। सुलोचना टाइपिस्ट और टेलिफोन ऑपरेटर थीं। रूबी मेयर्स बला की खूबसूरत और टाइपिंग की स्पीड में उनका कोई जवाब नहीं था। टेलिफोन ऑपरेटर का काम शुरू किया, तो वहां भी सबके आकर्षण का केंद्र रहीं। सुलोचना 3 मई 1913 से 14 मार्च, 1931 के बीच बनी मूक फिल्मों की मशहूर अदाकारा थीं।

ऐसे बनी रूबी से सुलोचना: रूबी मेयर्स उर्फ सुलोचना पर फिल्म निर्देशक मोहन भावनानी की नजर पड़ी। निर्देशक ने पूछा, ‘सिनेमा में काम करोगी?’ रूबी ने एक पल भी सोचे बिना मना कर दिया लेकिन जब निर्देशक मोहन भावनानी से हार नहीं मानी तो रूबी ने फिल्म के लिए हां कह दिया। रूबी ने 1925 में ‘वीरवाला’ अभिनय की शुरूआत की फिल्म में उन्हें ‘मिस रूबी’ के नाम से क्रेडिट मिला लेकिन निर्देशक की सलाह पर उन्होंने अपना नाम बदल कर ‘सुलोचना’ बन गई।

फिल्म में लेती थी हीरो से ज्यादा फीस: सुलोचना एकमात्र ऐसी अभिनेत्री थी जो हीरो से ज्यादा फीस लेती थी। जब बड़े-बड़े अभिनेता 100 रुपये की फ़ीस लिया करते थे, वहीं सुलोचना प्रति फिल्म 5000 रुपये लेती थीं। 1910 से 1930 के बीच कई मूक फिल्में बनी। जो भी बड़े पर्दे पर सुलोचना को देखता था वह बस देखता ही रह जाता था। दर्शकों से लेकर फिल्म निर्माताओं तक सुलोचना का क्रेज था।

100 से अधिक फिल्मों में किया अभिनय: सन 1925 से फिल्मी दुनिया में कदम रखने वाली सुलोचना ने 65 वर्षों में 100 से अधिक फिल्मों में काम किया। सन 1973 में सुलोचना को भारतीय सिनेमा में दिए योगदान के लिए फिल्म जगत के सबसे सम्मानित ‘दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड’ से नवाजा गया। जीवन में कई उतार चढ़ाव देखने के बाद सुलोचना ने 10 अक्टूबर 1983 में दुनिया को अलविदा कह दिया।