वाकया 1948-49 का है। पृथ्वीराज कपूर के थियेटर में एक तबलावादक अक्सर एक बंदिश गुनगुनाता था, ‘अमुआ का पेड़ है वो ही मुंडेर है, आजा मेरे बालमा अब काहे की देर है…’ यह तबलावादक हैदराबाद से पांचेक साल पहले मुंबई आया था। वह तबले में माहिर था। उसे उम्मीद थी कि यह शहर उसके फन की कदर करेगा। संयोग से उसे पृथ्वीराज कपूर के थियेटर में काम मिल गया था, जहां उसके कुछेक दोस्त भी बन गए थे। इनमें से तबलावादक चंद्रकांत भोसले और गुजरात का हारमोनियम बजाने वाला जयकिशन भी था। इसी बीच पृथ्वीराज कपूर के अभिनेता बेटे ने पहली फिल्म ‘आग’ (1948) शुरू की और उसका संगीत राम गांगुली को सौंपा, जिनके शंकर-जयकिशन सहायक बन गए।
‘आग’ बनने के दौरान प्रशिक्षित गायक रह चुके राज कपूर ने कई दफा शंकर के मुंह से ‘अमुआ का पेड़ है वही मुंडेर है..’ बंदिश सुनी थी। ‘आग’ के बाद राज कपूर बरसात बनाने लगे और उसके संगीत की जिम्मेदारी राम गांगुली को ही सौंप दी। इसके एक गाने की रिकॉर्डिंग को लेकर राम गांगुली और राज कपूर में टकराव हो गया। नतीजा, राज कपूर ने ‘बरसात’ के संगीत की जिम्मेदारी राम गांगुली के बजाय शंकर को सौंप दी। शंकर ने कहा इस काम के लिए अगर जयकिशन को भी उनके साथ कर दिया जाए तो बेहतर होगा। इस तरह से 1949 की ‘बरसात’ में पहली बार शंकर-जयकिशन की जोड़ी बनी।
शंकर जब संगीत देने लगे तो राज कपूर के दिमाग में उनकी सुनाई बंदिश ‘अमुआ का पेड़ है…’ गूंज गई। उन्होंने इसे फिल्म में इस्तेमाल करना तय किया और 11 रुपए महीने में मुंबई में छह सालों तक बेस्ट की बसों में कंडक्टरी कर चुके हसरत जयपुरी को इस पर गाना लिखने के लिए लगा दिया। गाने का मुखड़ा दरअसल शंकर की सुनाई गई बंदिश पर आधारित था, जिसमें जयपुरी ने थोड़ा हेरफेर कर दिया था। जयपुरी के गाने का मुखड़ा था ‘जिया बेकरार है छाई बहार है, आजा मेरे बालमा तेरा इंतजार है…’ यह हसरत जयपुरी का रिकॉर्ड हुआ पहला गाना था, जो खूब बजा। इसके साथ ही ‘बरसात’ के सभी गाने लोगों की जुबान पर चढ़ गए।
‘बरसात’ की सफलता ने शंकर-जयकिशन की जोड़ी को ऐसा जमाया कि 20 सालों तक कोई हिला नहीं सका। उनकी ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘बसंत बहार’, ‘अनाड़ी’, ‘चोरी चोरी’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘दाग’, ‘यहूदी’ जैसी फिल्में सफलता के झंडे गाड़ती चली गई। फिल्म इंडस्ट्री में इस जोड़ी की तूती बोल रही थी और उनका नाम फिल्म की सफलता की गांरटी बन गया था। फाइनेंसर उनके नाम से थैली खोल रहे थे। सफलता ऐसी पतंग होती है जिसे जमीन पर आना ही होता है, यह नियति है। लिहाजा इस जोड़ी में 1966 की ‘सूरज’ के बाद दरार आई और दोनों अलग हो गए। नई गायिका शारदा (‘तितली उड़ी’ गाने से मशहूर) को शंकर द्वारा आगे बढ़ाना इसकी वजह बताया गया। 1971 में जयकिशन और 1973 में शैलेंद्र की मौत के बाद शंकर अकेले दम पर कामयाबी कायम नहीं रख सके। उनके अख्खड़ व्यवहार के चलते निर्माता उनसे दूर होते चले गए। आरके कैम्प में उनकी जगह ‘बॉबी’ में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आ गए। 26 अप्रैल 1987 को शंकर ने भी यह दुनिया छोड़ दी। बड़ी ही खामोशी से। शंकर के परिवार ने उनके निधन की सूचना राज कपूर तक को नहीं दी। लिहाजा करीबियों को भी उनके निधन की सूचना अगले दिन अखबारों से मिली थी।
