गुलाम मोहम्मद- 1903 – 17 मार्च, 1968
‘पाकीजा’ का गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा… ’ मूल रूप से किसने लिखा, इसका आज भी पता नहीं। सबसे पहले ‘हिम्मत’ (1941) में पंडित गोविंदराम के संगीत निर्देशन में इसे शमशाद बेगम ने गाया। गीतकार थे अजीज कश्मीरी। ‘आबरू’ (1943) में गोविंदराम ने फिर इसे अभिनेता याकूब से गवाया। लिखा था तनवीर नकवी ने। ‘पाकीजा’ (1972) के लिए गुलाम मोहम्मद ने यही गाना 1956 में रेकॉर्ड किया और लता मंगेशकर से गवाया। लिखा था मजरूह सुलतानपुरी ने। निर्देशक कमाल अमरोही ने इसे ब्लैक एंड वाइट फिल्माया। बाद में रंगीन गाना फिल्म में इस्तेमाल किया गया।
मिर्जा गालिब’ और ‘पाकीजा’ जैसी मशहूर फिल्मों के संगीतकार गुलाम मोहम्मद के करिअर में एक वक्त ऐसा भी आया था, जब उन्हें एक पठान ने अपने 10 रुपए वसूलने के लिए 12 किलोमीटर पैदल चलाया था। तबलावादक पिता नबी बख्श से तबला और बाद में लोक और शास्त्रीय संगीत सीख कर फिल्मों में आए गुलाम मोहम्मद को गुजरे कल, शनिवार, पूरे पचास साल हो जाएंगे। यह किस्सा सुनाया था संगीतकार नौशाद ने। बात थी 1938 की। 1924 में मुंबई आए गुलाम मोहम्मद एक रूसी निर्माता हैड्रिंग डार्जिल की कंपनी न्यू पिक्चर्स की फिल्म ‘सुनहरी मकड़ी’ में सौ रुपए महीने पर तबलावादन थे। इस फिल्म के संगीतकार थे उस्ताद झंडे खान और नौशाद को उनका सहायक बनने का मौका मिला था। तब तीन महीने में फिल्में और उनका संगीत तैयार हो जाता था। गुलाम मोहम्मद अकसर पैसा सूद पर देने वाले पठानों से उधार लेते थे। पठान 10 रुपए देकर महीने में 12 रुपए वसूलते थे। हर एक तारीख को पठान कंपनी में आ जाता था और कर्जदारों से उधार दिए पैसे छीन कर ले लेता था।
अनुबंध के आखिरी दिन नौशाद और गुलाम मोहम्मद को कंपनी ने चेक दे दिया। इधर पठान माथे पर आ कर खड़ा था। उसका कहना था कि पैसे तो उसे आज ही चाहिए। बैंक लगभग 12 किलोमीटर दूर बांद्रा में था। न नौशाद की जेब में फूटी कौड़ी थी, न गुलाम की जेब में। लिहाजा तय किया कि चेम्बूर से पैदल बांद्रा जाकर बैंक से पैसे लेकर पठान को दे दिए जाएं। पठान साथ पैदल चलने के लिए तैयार हो गया कि कहीं गुलाम पैसे दिए बिना भाग न जाएं। पठान दोनों की परेशानी समझ रहा था, मगर एक तारीख को अपने पैसे वसूलने का उसूल छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। पैदल चलने के कारण भूख लगी तो गुलाम ने पठान से कहा कि लाला अपने पैसे से खाना खिला दो और उन्हें भी उधारी में जोड़ लो। पठान को भी उनकी हालत देखकर रहम आ गया और उसने बांद्रा के एक रेस्तरां में गुलाम और नौशाद को भरपेट खाना खिलाया मगर खाने के ढाई रुपए उधारी में जोड़ना नहीं भूला।
‘पाकीजा’ 1972 में रिलीज हुई मगर ‘मिर्जा गालिब’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके गुलाम मोहम्मद का इंतकाल 1968 में हो गया। तब वितरकों ने कमाल अमरोही पर खूब दबाव डाला था कि फिल्म का संगीतकार बदल दो, क्योंकि अब ट्रेंड बदल गया है। मगर अमरोही ने गुलाम मोहम्मद के संगीत पर विश्वास किया। ‘पाकीजा’ रिलीज (4 फरवरी, 1972) हुई मगर चल नहीं रही थी। इसी बीच हीरोइन मीना कुमारी का निधन (31 मार्च, 1972) हो गया, जिसके बाद थियेटरों में लोगों की भीड़ उमड़ने लगी थी। उसके गाने-‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘चलते चलते…’, ‘मौसम है आशिकाना…’ जैसे गाने लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहे थे। इन गानों का लोगों पर इतना ज्यादा असर था कि एक मशहूर फिल्म पुरस्कार के दौरान प्राण ने ‘पाकीजा’ के बजाय ‘बेईमान’ को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार देने पर बगावत कर दी थी। संगीत का यह पुरस्कार ‘बेईमान’ के लिए शंकर-जयकिशन को दिया गया था। इसी फिल्म में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार लेने प्राण जब मंच पर पहुंचे तो उन्होंने कहा कि पुरस्कार ‘पाकीजा’ को दिया जाना था। उन्होंने विरोध जताया और पुरस्कार लेने से साफ इनकार कर दिया था।
शास्त्रीय और लोक संगीत के दम पर अनिल बिस्वास और नौशाद के 12 सालों तक सहायक रहे गुलाम मोहम्मद ने अपना अलग मकाम बनाया। मगर उम्र के आखिरी दौर में वह बीमार पड़े और उन्हें गंभीर आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा।

