निर्देशक-आर बाल्की, कलाकार- अमिताभ बच्चन, धनुष, अक्षरा हासन।

ये आकांक्षा, अहं और असफलता को दिखानेवाली फिल्म है। ये अभिनय की बारीकियां को पेश करती है और अमिताभ बच्चन की आवाज की गहराई को भी। इस फिल्म में रजनीकांत और अमिताभ बच्चन की जिंदगी के अक्स भी हैं और साथ ही इसमें विशिष्ट निर्देशकीय जीवन दर्शन भी है। इसमें मनोरंजन है लेकिन जिंदगी की त्रासदियों को समझने की ललक अधिक है। आर बाल्की ने फिर से साबित किया है कि वे जीवन की सामान्य घटनाओं में बसे असामान्य पहलुओं की पड़ताल कर सकते हैं।

शमिताभ वहां ले जाती है जहां कला के कई पक्ष आपस में टकराते हैं और एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होते हैं। जैसे ये कि अभिनेता की आवाज और अभिनय में क्या रिश्ता है। आवाज बड़ी है या अभिनय? क्या बिना आवाज के अभिनय हो सकता है? अच्छे अर्थों में ये कला की अकादमिक फिल्म भी है।

इसमें धनुष ने दानिश नाम के एक ऐसे शख्स का किरदार निभाया है जो मूक है लेकिन जिसमें अभिनय की गहरी लालसा है। घोर अभावों में जीवन बिताने वाला दानिश फिल्मों का दीवाना है। अपनी मां के मरने के बाद वो फिल्मी दुनिया में प्रवेश करने की जुगत भिड़ाता है पर इस राह में कई कठिनाइयां हैं। लेकिन एक फिल्म निर्देशक की सहयोगी अक्षरा (अक्षरा हासन) उसकी मदद करती है। पर सबसे बड़ी चुनौती तो ये है कि दानिश को आवाज कैसे दी जाए। एक नई तकनीक से ये संभव है। अक्षरा की नजर अमिताभ सिन्हा पर पड़ती है जो एक कब्रिस्तान में रहता है और जीवन में असफल है। अभिताभ सिन्हा की आवाज में वो दम है जो दानिश पर फिट बैठता है। अमिताभ सिन्हा की अपनी दर्दनाक कहानी है। वो भी फिल्म अभिनेता बनने की चाहत रखता था लेकिन नाकामयाब रहता है।

अक्षरा की वजह से उसके फिल्मी जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है। पर सिर्फ उसकी आवाज का। अमिताभ सिन्हा की आवाज और दानिश के अभिनय प्रतिभा के संयोग से सफलता की मंजिलें शुरू हो जाती हैं। मगर जल्द ही अहं का टकराव शुरू होता है। आखिर सफलता किसकी वजह से संभव हुई। अमिताभ सिन्हा की आवाज के कारण या दानिश की अभिनय प्रतिभा के कारण? फिल्म इसी दायरे में घूमती हुई कई जटिल बौद्धिक प्रश्नों से साक्षात्कार करती है। आर बाल्की ने चीनी कम और पा के बाद एक और गहरी व्यंजनावाली फिल्म बनाई है। हालांकि कुछ जगहों पर ये शिथिल जरूर हुई है पर इससे इसकी गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।

फिल्म में सूक्ष्म प्रतीक भी हैं। सबसे बड़ा तो ये है कि अमिताभ सिन्हा कब्रिस्तान में रहता है। वो जीवित लोगों के बीच असहज है और मृतकों के बीच सहज। जिंदगी में ऐसे लम्हे आते हैं जब व्यक्ति अपनी विफलता को पचा नहीं पाता और अपने लिए ऐसी दुनिया ढूंढ़ लेता है जहां उसके सिवा कोई दूसरा नहीं होता। वो एक अजनबी हो जाता है। काफ्का और कामू ने अपने लेखन में जिस अपरिचय और बेगानेपन को चिन्हित किया था उसे ही बाल्की ने अपने ठेठे देसी तरीके से रेखांकित किया है।

अमिताभ की बुलंद और गहरी आवाज और धधकती आंखों ने अमिताभ सिन्हा के चरित्र को उस बुलंदी पर पहुंचा दिया है जहां हिंदी फिल्म उद्योग इसके पहले नहीं पहुंचा था। बाल्की नैपा में भी इसी तरह का काम किया था और इस बार उन्होंने अपने लिए एक नया लक्ष्य तय किया और उसे पाया भी। दानिश की भूमिका में धनुष ने भी लाजवाब किया है और एक मूक अभिनेता के रूप में उस भूमि पर चले जाते हैं जहां कई बार हमें ऊंची आवाज भी नहीं ले जाती। कलात्मक स्तर पर ये फिल्म अमिताभ बच्चन और धनुष के बीच द्वंद्व युद्ध भी है जिसमे कोई विजेता नहीं लेकिन इस कलायुद्ध का सौदर्य विरल है।