Film stree and Yamla Pagla Deewana phir se review: फिल्म स्त्री की समीक्षा: ये भूतनी डराएगी और हंसाएगी भी: निर्देशक- अमर कौशिक, कलाकार-राजकुमार राव, श्रद्धा कपूर, पंकज त्रिपाठी, अपारशक्ति खुराना। हिंदी फिल्म जगत में उम्दा हॉरर फिल्मों या कहें भूतिया फिल्मों का कोई खास कलेक्शन नहीं है। बीते जमाने में हॉरर फिल्मों का पर्याय बन चुके रामसे ब्रदर्स की फिल्मों की बात करें तो ये फिल्में डराती कम उबाती ज्यादा हैं। हॉरर फिल्मों की एक श्रेणी है हॉरर कॉमेडी, जिसमें डरावने दृश्यों और डरावनी हरकतों से हास्य पैदा किया जाता है। ‘भूतनाथ’ ‘भूल भुलैया’ और ‘गोलमाल अगेन’ जैसी कुछ चुनिंदा फिल्में हैं जो डराने के साथ-साथ हंसाने का काम भी करती हैं। इसी कड़ी में अगला नाम आता है इस हफ्ते रिलीज हुई फिल्म ‘स्त्री’ का, लेकिन यहां भूत नहीं भूतनी है। लेकिन ये भूतनी डरावनी कम मजेदार ज्यादा है और कुछ-कुछ रोमांटिक भी है। फिल्म की कहानी मध्य प्रदेश के चंदेरी शहर में बुनी गई है। यह शहर साड़ियों के लिए मशहूर है। हालांकि यहां की साड़ियों का जिक्र फिल्म में न के बराबर है। शायद निर्देशक भूतनी देखने के चक्कर में साड़ियां नहीं देख पाया। पूरी फिल्म एक भूतनी को लेकर है जो आम लोगों की जुबान में ‘स्त्री’ कही जाती है। भूतनी के बारे में शहर के लोग कहते हैं कि वह साल में सिर्फ चार दिन के लिए वहां आती है। रात में किसी पुरुष को उठाकर ले जाती है और सिर्फ उसके कपड़े छोड़ जाती है। भूतनी के डर से गांव के लोग अपने घरों के आगे लिखवा देते हैं ‘ओ स्त्री कल आना’। मानो ये पढ़कर वो नहीं आएगी। बहरहाल, किस्सा तो यही है।

इसी चंदेरी शहर में विकी (राजकुमार राव) नाम का एक नौजवान दर्जी रहता है जो इतनी फटाफट घाघरा-चोली सिलता है कि पूछिए ही मत। इसीलिए विकी के यहां कपड़े सिलाने के लिए लाइन लगी रहती है। विकी के पास एक दिन एक खूबसूरत लड़की (श्रद्धा कपूर) आती है। विकी उसका नाम भी पूछ नहीं पाता, अंत तक। वो खूबसूरत लड़की विकी को तीन दिन में घाघरा सिलने को कहती है। इसके बाद बातों मुलाकातों का सिलसिला आगे बढ़ता है, लेकिन धीरे-धीरे वह लड़की विकी और उसके दोस्तों जना (अभिषेक बनर्जी) व बिट्टू (अपार शक्ति खुराना) के लिए रहस्यमयी बन जाती है। उधर चंदेरी के लोगों में ‘स्त्री’ का खौफ फैला है। इसी बीच शहर के एक बूढ़े पंडित (विजय राज) से विकी और उसके दोस्तों का साथ दे रही उस रहस्यमयी लड़की को ‘स्त्री’ को खत्म करने का नुस्खा मिलता है। नुस्खा बड़ा ही अजीबोगरीब है, लेकिन यह काम आएगा या नहीं? यह तो फिल्म के अंत में ही पता चलता है। इसके साथ ही ‘स्त्री’ का राज भी खुलता है।

अभिनय की बात करें तो राजकुमार राव ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उनके लिए कोई भी किरदार मुश्किल नहीं है। विकी का उनका किरदार यह दिखाता है कि कैसे अंदर से डरा हुआ एक आदमी बाहर से न डरने की एक्टिंग करता है। उनका किरदार थोड़ा रोमांटिक भी है। इन तीनों अहसासों को राजकुमार ने बखूबी निभाया है। श्रद्धा कपूर फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक रहस्य ही बनी रहीं। इन दोनों के अलावा अगर फिल्म में कोई नजर आता है तो वो हैं पंकज त्रिपाठी। उन्होंने अपनी पिछली कुछ फिल्मों में ऐसी भूमिकाएं निभाई हैं जिसमें किरदार बाहर से गंभीर रहता है, लेकिन अपनी कॉमिक टाइमिंग के जरिए लोगों को हंसने पर मजबूर कर देता है। इस फिल्म में भी ऐसा ही होता है। फिल्म का हास्य सामान्य जनजीवन से उठाया गया है, इसलिए यह दर्शकों को असली लगता है, बनावटी नहीं।
यमला पगला दीवाना फिर से: उधार के किरदारों पर टिकी फिल्म, निर्देशक- नवनीत सिंह, कलाकार-सनी देओल, बॉबी देओल, धर्मेंद्र, कृति खरबंदा।

घरेलू फुटबॉल में ऐसा होता है कि कई बार आपको दूसरी टीमों के खिलाड़ी लेने पड़ते हैं। आम बोलचाल में उनको ‘बॉरो’ यानी उधार का खिलाड़ी कहते हैं। धर्मेंद्र, सनी देओल और बॉबी देओल की तिकड़ी ने भी ‘यमला पगला दीवाना’ शृंखला की तीसरी फिल्म ‘यमला पगला दीवाना फिर से’ के लिए सलमान खान और सोनाक्षी सिन्हा को कुछ देर के लिए ही सही, ‘बॉरो’ किया है। एक पर एक मुफ्त की तर्ज पर सोनाक्षी के साथ उनके पिता यानी शत्रुघ्न सिन्हा भी फिल्म में एक छोटे से किरदार में हैं।

कई फिल्मों में अपना ढाई किलो का हाथ दिखा चुके सनी देओल इस फिल्म में पूरन वैद्य की भूमिका में हैं इसलिए फिल्म में उनके हाथ से ज्यादा उनकी बूटी चलती है। बूटी भी कैसी, वज्र जैसी। पूरन वैद्य के पास जो आयुर्वेदिक बूटी यानी दवा है उसका नाम है ‘वज्र कवच’। यह रामबाण की तरह है यानी हर रोग का इलाज। पूरन वैद्य का एक भाई है काला (बॉबी देओल), जोकि निठल्ला है लेकिन हमेशा विदेश जाने के सपने देखता रहता है। इन दोनों भाइयों के अलावा फिल्म में यमला परमार (धर्मेंद्र) नाम का एक वकील भी है जो काफी रंगीन मिजाज है और हमेशा हसीनाओं के ख्वाब देखा करता है। फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि पूरन वैद्य के वज्र कवच पर एक दूसरी दवा कंपनी की निगाह पड़ती है और वो इस दवा का पेटेंट करा लेती है। इसलिए पूरन वैद्य एक मुकदमे फंस जाता है और इसी सिलसिले में उसे पंजाब से गुजरात जाना पड़ता है। पूरी फिल्म इसी वाकये के इर्द-गिर्द घूमती है। हालांकि फिल्म कॉमेडी है, लेकिन थोड़ी देर के बाद बोर करने लगती है। वजह है फिल्म की ढीली-ढाली पटकथा, जो दर्शकों को सिनेमाघर में रुकने पर मजबूर नहीं कर पाती है।