K N singh death anniversary: ‘वक्त की लिखी पटकथा में केएन, यानी कृष्ण निरंजन, सिंह का एक्टर बनना लिखा था इसलिए न सेना में जा पाए, न वकील बन पाए, न खिलाड़ी। सेना में जाने का जुनून समय के साथ उतर गया। वकालत के पेशे से भी मोहभंग हो गया और हालात ऐसे बने कि खेलों की दुनिया में भी जाना नहीं हुआ। देहरादून में पैदा हुए सिंह पहले कोलकाता पहुंचे। वहां एक्टिंग शुरू की। फिर मुंबई आए और मुंबइया फिल्मों के सबसे महंगे खलनायक बने। ऐसे खलनायक जिसके आंखें तरेरने भर से दर्शंकों की रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती थी। साढ़े पांच दशकों तक हिंदी फिल्मों में काम करने वाले केएन सिंह की आज 20वीं पुण्यतिथि है।
के एन सिंह के पिता चंडीप्रसाद सिंह क्रिमिनल केस लड़ने वाले नामी वकील थे। एक बार पिता ने अकाट्य तर्र्कों के दम पर एक गुनहगार को बरी करवा लिया, तो केएन सिंह का वकालत के पेशे से मोहभंग हो गया। खेलों में रुचि थी। भाला फेंक और गोला फेंक में माहिर सिंह 1936 के बर्लिन ओलंपिक में जाने की तैयारी कर रहे थे। सिंह पांच भाइयों में सबसे बड़े थे। उनकी इकलौती बहन कोलकाता में बीमार थी। बहन के प्यार ने खींचा तो भावुक भाई उनकी तीमारदारी करने कोलकाता चले गए। यहां उनकी मित्रता पृथ्वीराज कपूर से हुई, जो तब लोकप्रिय फिल्म कलाकार थे।
कोलकाता में पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें देबकी बोस से मिलवाया। सेट पर हाथ में छड़ी लेकर काम करने वाले देबकी बोस का ‘चंडीदास’, ‘पूरन भगत’, ‘राजरानी मीरा’ जैसी फिल्मों की सफलता से कोलकाता में डंका बज रहा था। उनकी बांग्ला फिल्म ‘सोनार संसार’ (हिंदी में ‘सुनहरा संसार’,1936) से केएन सिंह पहली बार परदे पर उतरे।
कभी अंग्रेजी फिल्मों के पोस्टर बनाने वाले अब्दुल रशीद कारदार उन दिनों कोलकाता में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए फिल्में बना रहे थे। कारदार दसेकफिल्मों का निर्देशन कर चुके थे। जब वह कोलकाता से मुंबई आए तो केएन सिंह को भी मुंबई बुला लिया और ‘बागवान’ (1938) बनाई, जो 50 हफ्ते चली और केएन सिंह भी चल निकले। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें कभी झपकती नहीं थी। हां पतलून, कोट, टाई पहने, हैट लगाए, मुंह में पाइप रखे सिंह की भौंहे खूब उठती-गिरती थीं। इतना सूटेड-बूटेड विलेन हिंदी सिनेमा में शायद ही कोई दूसरा रहा हो। आंखों को ताकतवर बनाने के लिए उन्होंने खूब त्राटक (नजर को एक जगह केंद्रित करना) किए। सिंह की आंखों के तेवर पर खूब लिखा गया तो इसलिए कि एक्टिंग के दौरान आंखें सिंह का सबसे बड़ा हथियार होती थीं।
सिंह की आंखों के दीवाने महबूब खान (हुमायू), राज कपूर (आवारा), अशोक कुमार (चलती का नाम गाड़ी), शक्ति सामंत (हावड़ा ब्रिज), चिनप्पा देवर (हाथी मेरे साथी), गुरु दत्त (बाजी), राज खोसला (वो कौन थी) जैसे फिल्मकार रहे। फिल्मकारों ने केएन सिंह की आंखों का खूब इस्तेमाल किया। आंखें तरेरते केएन सिंह जब हीरो को ठंडे सुरों में धमकाते, तो दर्शकों में सिहरन दौड़ जाती थी। उन्हें प्राण या गुलशन ग्रोवर की तरह किरदारों को प्रभावशाली बनाने के लिए तरह-तरह के गेटअप की जरूरत नहीं पड़ी। वह अपने दौर के सबसे महंगे खलनायक थे।
‘सुनहरे दिन’ (1938) से ‘लैला’ (1994) तक, सिंह ने साढ़े पांच दशक लंबी पारी खेली। 50 और 60 के दशक में उनकी आंखों की ताकत दोपहर के सूरज की तरह चढ़ी। मगर जो चढ़ा सूरज दोपहर को आग उगलता है, वही शाम को निस्तेज भी होता है। 70 के दशक में केएन सिंह छोटी-छोटी भूमिकाओं तक सीमित हो गए। ताकतवर आंखों का तिलिस्म खत्म हो गया। उनकी रोशनी कमजोर हो गई और आखिर सालों में तो उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह से चली गई थी।

