अनजान ने 1953 की ‘गोलकुंडा का कैदी’ से अपने करियर की शुरुआत की और 17 साल तक संघर्ष किया। 1969 में ‘बंधन’ फिल्म में उनका लिखा गाना ‘बिना बदरा के बिजुरिया कैसे चमके…’ काफी लोकप्रिय हुआ। यह नरेंद्र बेदी की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। 70 के दशक में सुपर स्टार अमिताभ बच्चन की फिल्मों के लिए अनजान ने ढेर सारे गाने लिखे जिनमें ‘खइके पान बनारस वाला…’ (डॉन) से लेकर ‘मानो तो मैं गंगा मां हूं…’, (गंगा की सौगंध), ‘ओ साथी रे…’ (मुकद्दर का सिकंदर), ‘खून पसीने की मिलेगी तो खाएंगे…’ (खून पसीना) जैसे गाने खूब चले। जब अनजान लोकप्रियता का शिखर चूम रहे थे, उनके बेटे समीर उन्हें बिना बताए मुंबई में गीतकार बनने के लिए एक चाल में रह रहे थे और लोकल ट्रेन से सफर कर रहे थे।
अपने संघर्ष को देखते हुए गीतकार अनजान ने अपने बेटे समीर को एम कॉम करवाया ताकि वे सीए बन सकें। इसकी वजह यह भी थी कि 60 के दशक में हिंदी सिनेमा में गीत लेखनके क्षेत्र में कड़ी प्रतिस्पर्धा थी। मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी से लेकर साहिर लुधियानवी जैसे प्रतिभाशाली गीतकारों के बीच अपना मकाम बनाना आसान नहीं था। लिहाजाअनजान नहीं चाहते थे कि उनका बेटा भी मुंबई आकर उनकी तरह संघर्ष करे। बनारस में एम कॉम करने के बाद समीर सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया में नौकरी भी करने लगे। मगर जब पहले ही दिन बैलेंस शीट नहीं मिली तो सिर्फ एक दिन काम करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और गीतकार बनने मुंबई आ कर एक चाल में रहने लगे। लगभग साल भर बाद समीर मुंबई के चर्चगेट से 13 रुपए में खरीदी कमीज पहन कर गांव गए तो उनकी मां उन्हें देख कर परेशान हो गईं। समीर बहुत दुबले हो गए थे। तब समीर की मां ने अपने पति को चिट्ठी लिख कर बेटे के बारे में बताया। समीर जब मुंबई लौटे तो एक दिन अनजान ने समीर को बुलाया। दोनों की मुलाकात बांद्रा स्थित पंपोश रेस्टॉरेंट में हुई। अनजान ने बेटे को दुनियादारी समझाई और पूछा,‘क्या तुमने कभी किसी से प्यार किया है।’ समीर के हां कहने पर अनजान ने कहा कि यह इंडस्ट्री भी महबूबा की तरह है। गीतकार बनने से पहले यह जान लो कि यह तुम्हारे प्रति वफादार रहे या बेवफा हर हालत में इसका साथ नहीं छोड़ना है।
इसके बाद भोजपुरी फिल्मों के लिए छिटपुट गीत लिख रहे समीर से अनजान ने कहा कि वे गाने लिखना बंद कर दें। चल कर उनके घर में साथ रहें। साथ ही एक अनोखी शर्त भी बेटे के सामने रख दी। कहा कि वह कभी भी गीत लिखने में समीर की मदद नहीं करेंगे। पहले तो गाने लिखना बंद कर समीर उनके साथ संगीत की बैठकों में चलें। वहां देखें कि किस तरह से काम होता है। साथ ही कहा कि अगर समीर खुद को गीतकार मानते हैं तो आज से उनके संगीतकार उन्हें गीत लिखने के लिए जो सिचुएश्न देंगे, उस पर एक मुखड़ा वह खुद लिखेंगे और एक समीर। अनजान दोनों मुखड़े अपने संगीतकारों को सुनाएंगे, लेकिन उन्हें बताएंगे नहीं कि इनमें से एक मुखड़ा समीर ने लिखा है। जिस दिन पिता-पुत्र में से समीर का लिखा हुआ मुखड़ा संगीतकार पसंद करेंगे, उस दिन के बाद समीर अपना करियर अपनी तरह से बनाने के लिए आजाद होंगे।
फिर अनजान अपनी फिल्म के संगीतकारों- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, आरडी बर्मन, बप्पी लहरी आदि को अपने मुखड़े के साथ समीर का लिखा हुआ मुखड़ा भी सुनाने लगे। मगर कोई संगीतकार समीर का मुखड़ा पसंद ही नहीं कर रहा था। ऐसा लगभग एक साल तक चला। समीर का विश्वास टूटने लगा। 1984 में गुरुदत्त फिल्म्स के लिए गुलशन नंदा की कहानी पर बनी तरुण दत्त की फिल्म ‘बिंदिया चमकेगी’ में संगीतकार आरडी बर्मन को समीर का लिखा मुखड़ा पसंद आया और उनके गीतकार बनने का रास्ता खुल गया। हालांकि समीर इससे पहले भोजपुरी के साथ ही हिंदी में ‘मार के कटारी मर जइबे…’ (बेखबर, 1983) जैसे छिटपुट गाने लिख चुके थे।
बाद में समीर की जोड़ी आनंद-मिलिंद और नदीम-श्रवण जैसे संगीतकारों के साथ बनी और उन्होंने चार हजार से ज्यादा गाने लिखे। उनके लिखे ‘तेरी उम्मीद तेरा इंतजार…’ (दीवाना), ‘नजर के सामने…’ (आशिकी), ‘तुम पास आए…’ (कुछ कुछ होता है) जैसे गानों को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला।