बंगाल की खाड़ी में पोत परिवहन को नया आयाम देते हुए दस हजार करोड़ रुपए की लागत से एक पोतांतरण बंदरगाह का निर्माण करने की योजना प्रस्तावित है। यह बंदरगाह विकास से जुड़ी गतिविधियों के बड़े केंद्र के रूप में विकसित होगा। विकास के इसी क्रम में चेन्नई से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तक तेज इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने वाली देश की पहली समुद्री आप्टिकल फाइबर परियोजना का उद्घाटन हो चुका है।
समुद्र तटीय क्षेत्रों में भारत विकास की दृष्टि से पीछे रहा है। उन तटीय क्षेत्रों पर भी हमने ध्यान नहीं दिया, जो देश के लिए नई आर्थिकी और चीन जैसे देश से चुनौती के लिए सामरिक दृष्टि से अहम हो सकते हैं। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह उनमें एक है। मगर अब इस उपेक्षित क्षेत्र की तस्वीर बदलने जा रही है। सिंगापुर की तर्ज पर निकोबार के तट का विकास केंद्र सरकार ‘महान निकोबार द्वीप परियोजना’ (जीएनआइ) के अंतर्गत कर रही है।
हालांकि परियोजना के अमल से बड़ी मात्रा में पर्यावरण को नुकसान भी होगा। पर पूरी दुनिया में इसी तरह आधुनिक विकास परिणाम तक पहुंचा है।निकोबार द्वीप समूह दस हजार चौवालीस वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। बंगाल की खाड़ी में पोत परिवहन को नया आयाम देते हुए दस हजार करोड़ रुपए की लागत से एक पोतांतरण बंदरगाह का निर्माण करने की योजना प्रस्तावित है। यह बंदरगाह विकास से जुड़ी गतिविधियों के बड़े केंद्र के रूप में विकसित होगा।
विकास के इसी क्रम में चेन्नई से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तक तेज इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने वाली देश की पहली समुद्री आप्टिकल फाइबर परियोजना का उद्घाटन हो चुका है। इससे इस द्वीप समूह को बेहतर और सस्ती ब्राडबैंड संपर्क सुविधा हासिल होगी। इस बंदरगाह को समुद्री जल मार्ग की प्रमुख गतिविधियों के केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है।
वैसे भी यह क्षेत्र दुनिया के कई पोतांतरण बंदरगाहों की तुलना में काफी प्रतिस्पर्धी दूरी पर स्थित हैै। बदलती जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में पूरी दुनिया यह मानकर चल रही है कि जिस देश में हवाई अड्डों और बंदरगाहों का संजाल और जुड़ाव जितना बेहतर होगा, इक्कीसवीं सदी के व्यापार में वही देश अग्रणी रहेंगे। जब यह बंदरगाह बन जाएगा तो इससे समुद्री व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ेगी और युवाओं के लिए नए रोजगार पैदा होंगे।
इस द्वीप पर विकसित किए जा रहे माल-परिवहन के दो रणनीतिक कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल के दो भौगोलिक फायदे होंगे। पहला, यह व्यस्त पूर्वी-पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय जहाजरानी मार्ग के निकट है। इसलिए शुरू होने के बाद यह पोतांतरण की बेहतर सुविधा देगा। नतीजतन, व्यापारिक गतिविधियां बढ़ेंगी। दूसरे, इस क्षेत्र में आधुनिक ढंग से निर्मित जहाजों से माल उतारने-चढ़ाने की सुविधाएं बंदरगाह पर उपलब्ध होंगी, जिससे बड़े जहाजों की आवाजाही बढ़ेगी।फिलहाल भारत के ज्यादातर बंदरगाहों पर बड़े जहाज प्लेटफार्म तक नहीं पहुंच पाते हैं। उन्हें गहरे जल में ही खड़ा रखना पड़ता है।
अंडमान-निकोबार द्वीप प्रशासन ने कुछ समय पहले ही महान निकोबार द्वीप की दक्षिणी खाड़ी में मुक्त व्यापार भंडारण क्षेत्र विकसित करने के लिए कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल के लिए प्रक्रिया आरंभ की है। इससे भारतीय पोत परिवहन को कोलंबो (लंका), सिंगापुर और मलेशिया के क्लांग बंदरगाह में पोतांतरण का नया विकल्प हासिल होगा।
दरअसल, इस वक्त भारत हर क्षेत्र में स्वदेशीकरण और आत्मनिर्भरता के दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है। साथ ही वैश्विक स्तर पर विनिर्माण और वस्तुओं की आपूर्ति की कड़ी में अहम भागीदारी कर खुद को एक विश्वसनीय कारोबारी के रूप में स्थापित करने में लगा है। इस दृष्टि से भी नदियों, समुद्री जलमार्गों और बंदरगाहों का आधुनिक ढंग से ढांचागत विकास करना आवश्यक है। तय है, आने वाले पांच-छह साल के भीतर इन जलमार्गों और बंदरगाहों को नवीनतम रूप देने में भारत सफल होगा।
अंडमान-निकोबार का ढांचागत विकास हो जाने पर यहां मछली पालन, एक्वाकल्चर और समुद्री शैवाल की खेती का कारोबार बढ़ेगा। भारत के व्यापारी ही नहीं, दुनिया के कई देश इस परिप्रेक्ष्य में व्यापार की बड़ी संभावनाएं देख रहे हैं। इस दृष्टि से पोर्ट ब्लेयर में एक प्रायोगिक परियोजना शुरू की गई थी, जिसके परिणाम उत्साहजनक रहे हैं।
अंडमान-निकोबार के समुद्र तटीय मछुआरों की हालत भी मैदानी क्षेत्रों के गरीब और पराश्रित किसानों जैसी ही है। इन तटवर्ती क्षेत्रों में मछली पकड़ कर आजीविका चलाने वाले मछुआरों की संख्या करीब आठ करोड़ है। गोया, तय है अंडमान-निकोबार क्षेत्र में तटवर्ती मछुआरों को इस क्षेत्र के विकास का सीधा लाभ मिलेगा।
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह का निकोबार क्षेत्र आरक्षित जैवमंडल (बायोस्फीयर) क्षेत्र में आता है। इसे 2013 में विशेष जैवमंडल का दर्जा दिया गया था। भारत में कुल अठारह जैवमंडल क्षेत्र हैं, उनमें से एक निकोबार जनजातीय (आदिवासी) आरक्षित वन-भूमि की श्रेणी में है। इस समुद्री क्षेत्र में विशेष प्रजाति के लैदरबैक कछुए, खारे पानी में रहने वाले मगरमच्छ, निकोबारी केकड़े खाने वाले मकाक और प्रवासी पक्षी शामिल हैं, जिनका इस बहुआयामी विकास परियोजना से प्रभावित होना तय है।
हालांकि पर्यावरणविद आशंका जता रहे हैं कि इससे यहां के प्राचीन वर्षा वनों को भारी क्षति होगी। इन्हें हानि होगी, तो कई दुर्लभ प्राणी और वनस्पतियों की प्रजातियां और इस भू-भाग का मानसून भी प्रभावित होगा। यही नहीं, निकोबार द्वीप समूह में गिनती के रह गए जो जनजातीय समूह आदिम अवस्था में रहते हैं, उनका नैसर्गिक जीवन भी प्रभावित होने की शंका जताई जा रही है। इनमें शोंपेन और निकोबारी वनवासी जनजातियां शामिल हैं।
इनकी संख्या करीब 1761 है। निकोबार में एक विशेष प्रजाति के न उड़ सकने वाले पक्षी मेगापाड का भी घर है। इनके कुल इक्यावन घोंसले हैं, जिनमें से तीस पूरी तरह नष्ट कर दिए जाएंगे। दरअसल, यह विकास गलाथिया खाड़ी और कैंपबेल खाड़ी राष्ट्रीय उद्यानों की दस किमी परिधि में होना है, जो पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है।
हालांकि भारतीय प्राणी सर्वेक्षण और अंडमान-निकोबार प्रशासन के वन एवं पर्यावरण विभाग ने दावा किया है कि परियोजना से वन और प्राणियों को नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। मैंग्रोव वृक्षों के संरक्षण और दस हेक्टेयर में फैली मूंगा चट्टानों की 20,668 बस्तियों में से 16,150 बस्तियों की सुरक्षा मूलस्थान से खिसका कर की जा रही है।
अगर कुछ पर्यावरणीय हानि उठानी भी पड़ती है, तो इसे इसलिए स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि यह बृहद परियोजना राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक उद्देश्यों की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है। इसके तहत सैन्य-नागरिक उपयोग के लिए आवागमन के श्रेष्ठ उपाय किए जा रहे हैं। यहां के अधिकतर विकास कार्य भी नौसेना के नियंत्रण में होने हैं। यहां से बंगाल की खाड़ी, दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशियाई सागर क्षेत्र में भारत को सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और उपयोगी नियंत्रण की सुविधा हासिल होने की उम्मीद है।
दरअसल, इसी दक्षिण सागर में चीन का जबर्दस्त हस्तक्षेप है। चीन का प्रमुख व्यापार और साम्राज्यवादी दबदबा इसी मलक्का जलडमरुमध्य में सबसे ज्यादा है। श्रीलंका तो यहां से निकट है ही, इंडोनेशिया का सुमात्रा द्वीप भी बमुश्किल नब्बे किमी की दूरी पर है। यह स्थल मलक्का जलडमरुमध्य के पश्चिमी प्रवेश द्वार के करीब है।
खाड़ी से तेल ले जाने वाले और पश्चिम में वस्तुओं का निर्यात करने वाले चीनी जहाज मलक्का जलडमरुमध्य से ही गुजरते हैं। इसलिए निकोबार द्वीप पर सैन्य सामग्री और युद्धपोतों को रखने तथा बनाने के लिए डाकयार्ड भी यहां बनाए जा सकते हैं। साफ है, जब युद्धपोत यहां खड़े किए जाएंगे, तो मिसाइलें भी स्थापित करने के उपाय किए जाएंगे।
इस परियोजना के माध्यम से यह उपाय भारत की सामरिक रणनीति का हिस्सा है। इसके संपन्न हो जाने के बाद भारत चीन को कड़ा संदेश दे सकेगा। सिंगापुर, हांगकांग और दुबई ने पहले ही दिखा दिया है कि किस तरह द्वीपों और समुद्री तटों को विकसित करके सामरिक और व्यापारिक महत्ता को एक साथ बढ़ाया जा सकता है। भारत निकोबार में यही कर रहा है।