(3 नवंबर 1937-27 मई 1998)
संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी ने अपने पूर्ववर्ती वरिष्ठ संगीतकारों की खिदमत की। उनका आशीर्वाद पाया। उन्हीं को टक्कर दी और फिर उन्हें पीछे छोड़ते हुए सभी स्थापित और ताकतवर फिल्म निर्माताओं को अपना मुरीद बना लिया। ‘बॉबी’, ‘हीरो’, ‘सरगम’, ‘एक दूजे के लिए’ जैसी प्रेम कहानियों से इस जोड़ी का जादू युवाओं के सिर चढ़ कर बोला था।

लक्ष्मीकांत लक्ष्मीपूजा के दिन पैदा हुए थे, तो परिवार ने उनका नाम लक्ष्मीकांत रख दिया, इस उम्मीद से कि एक दिन लड़का अपने नाम को सार्थक करेगा। यह अलग बात थी कि लक्ष्मीकांत का बचपन विले पार्ले (मुंबई का एक उपनगर) की झोपड़पट्टी में गरीबी में बीता। नौ-दस साल की उम्र में पिता का निधन हो गया था। लक्ष्मी और उनके बड़े भाई ने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए संगीत सीखना तय किया। लक्ष्मी मेंडोलिन सीखने लगे और उनके बड़े भाई तबला। लक्ष्मीकांत ने दो सालों तक हुसैन अली से, फिर बाल मुकुंद इंदौरकर से मेंडोलिन का प्रशिक्षण लिया। बाद में हिंदी फिल्मों की पहली मशहूर संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के हुस्नलाल के पास जाकर वायलिन बजाना सीखने लगे।

40 और 50 के दशक में हुस्नलाल-भगतराम के शागिर्दों में सिर्फ लक्ष्मीकांत ही नहीं थे। शंकर (जयकिशन), खय्याम जैसे संगीतकार और महेंद्र कपूर जैसे गायकों ने भी उनकी शागिर्दी की। इस जोड़ी के ‘चांद’ (1944) में बनाए ‘इक दिल के टुकड़े हजार हुए…’ गाने का कमाल यह था कि इसके बाद दर्द भरे गानों का दौर ही शुरू हो गया था। लक्ष्मीकांत की मुलाकात प्यारेलाल से रेडियो क्लब कोलाबा में लता मंगेशकर के एक संगीत कार्यक्रम के दौरान हुई। लक्ष्मीकांत मेंडोलिन बजाते थे। प्यारेलाल वायलिन वादक थे और 20वीं सदी के महान वायलिनवादक यहूदी मेनुहिन के भक्त थे। लता मंगेशकर ने दोनों की प्रतिभा को देखते अपने भाई हृदयनाथ के ग्रुप में उन्हें बजाने का मौका दिलवाया।

साथ ही एसडी बर्मन, सी रामचंद्र, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन जैसे कई संगीतकारों से दोनों की सिफारिश भी की, लिहाजा उन्हें वादक के रूप में छिटपुट काम मिलने लगा था। वादकों को बहुत कम पैसा मिलता था, इसलिए उन्होंने चेन्नई जाकर किस्मत आजमाई। मगर वहां भी हालत ऐसी ही थी, सो दोनों लौटकर मुंबई आ गए। प्यारेलाल ने अपने पिता से वायलिन बजाना सीखा। वह फिल्मों में संगीतकार नहीं बनना चाहते थे। उनका सपना वियना जाकर किसी सिंफनी आॅरकेस्ट्रा में काम करने का था। उन्होंने खुद को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करना शुरू कर दिया था। दूसरी ओर संगीतकार बनने का सपना देखने वाले लक्ष्मीकांत को भरोसा था कि एक दिन वह सपना सच करेंगे।

दोनों के सपने टकराए। उनके रास्ते अलग-अलग होने जा रहे थे। मगर दोस्ती ने जोर मारा तो लक्ष्मीकांत जिद पर अड़ गए। उन्होंने किसी तरह प्यारेलाल को देश छोड़कर जाने से रोका। अपने दोस्त की जिद देख प्यारेलाल ने भी वियना जाने का विचार छोड़ दिया। इस तरह लक्ष्मीकांत को दोस्त मिल गया और प्यारेलाल को अपना देश नहीं छोड़ना पड़ा। दोनों की यह दोस्ती उनकी ही फिल्म ‘दोस्ताना’ में रफी-किशोर के गाने ‘सलामत रहे दोस्ताना हमारा…’ की तरह साढ़े तीन दशक तक अखंड रही।

लक्ष्मी-प्यारे वादक से सहायक बने। फिर अरेंजर। उसके बाद फिल्मों का बैकग्राउंड म्यूजिक तैयार करने लगे। आखिर 1963 में एक छोटे बजट की फिल्म ‘पारसमणि’ उन्हें मिली, तो उनके शुभचिंतकों ने उन्हें खूब समझाया कि छोटे बजट की फिल्म से उनका करियर खराब हो सकता है। मगर यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई। इसका गाना ‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा…’ लोगों की जुबान पर चढ़ गया और लक्ष्मी-प्यारे की गाड़ी चल निकली। 1964 में इस जोड़ी को राजश्री प्रोडक्शन की छोटे बजट की फिल्म ‘दोस्ती’ मिली। इसी साल उनके प्रेरणास्त्रोत रहे शंकर-जयकिशन राज कपूर की भारी बजट की फिल्म ‘संगम’ से फिल्मजगत में धूम मचा रहे। ‘संगम’ और ‘दोस्ती’ फिल्म फेयर पुरस्कारों की दौड़ में शामिल थी और आखिर बाजी मारी ‘दोस्ती’ ने। इस टीम ने अपने गुरु को पीछे छोड़ दिया था।

मामला यहीं नहीं रुका। जो मनोज कुमार और मनमोहन देसाई कल्याणजी-आनंदजी को अपनी फिल्मों का संगीतकार बनाते रहे थे, उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को अपनी फिल्मों के संगीत की जिम्मेदारी सौंप दी। संगीत के जानकार रहे शोमैन राज कपूर ने भी जयकिशन के निधन के बाद ‘बॉबी’ से लक्ष्मी-प्यारे को मौका दिया और उनका साथ ‘प्रेम रोग तक चलता रहा।