निर्देशक-शाद अली।

कलाकार- गोविंदा, रनबीर सिंह, परिणीति चोपड़ा, अली जफर।

 

अच्छा हुआ कि गोविंदा ने यह एहसास कर लिया है कि अब वे फिल्मों में नायक की भूमिका अदा नहीं कर सकते। वरना उनका हाल भी कुछ-कुछ सनी देओल जैसा हो रहा था जो बाजार में ढाई किलो का हाथ लिए घूम रहे हैं और कोई रसूख वाला निर्माता उनसे हाथ मिलाने को तैयार नहीं है। इसलिए गोविंदा का फैसला उचित ही है कि नायक न सही खलनायक का रोल मिल जाए तो स्क्रीन पर तो दिखते रहेंगे। शाद अली की इस फिल्म में उन्होंने भैयाजी नाम के एक ऐसे गैंगस्टर की भूमिका निभाई है जो अपने चेले चपाटों से खून-खराबा कराता है और जुर्म की दुनिया का गॉडफादर है। और जैसा कि अब तक (इतिहास में नहीं) फिल्मों में होता आया है इस गॉडफादर के भी कई कारिंदे हैं। इनमें दो खास हैं- एक तो देव (रनबीर सिंह) और दूसरा टूटू (अली जफर)। दोनों कानून की धज्जी उड़ाते हैं। दोनों में गजब की दोस्ती है। ‘शोले’ के जय और वीरू की तरह। और अपने भैयाजी का आदेश मानकर गोलियां दागते फिरते हैं। भैयाजी ने इन्हें बचपन से पाला-पोसा और बड़ा किया और हाथों में बंदूक थमाया। सो एहसान तो मानेंगे ही मानेंगे।

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पर घूरे के दिन फिरते हैं तो देव के क्यों नहीं फिरेंगे? सो उसकी जिंदगी में एक हसीना आती है जिसका नाम है दिशा (परिणीति चोपड़ा)। दिशा अपराधियों को सुधारने का काम करती है और एक एनजीओ में काम करती है। स्वाभाविक है, दिशा की वजह से देव की जिंदगी की दिशा बदलने लगती है। अब भैयाजी क्यों चाहेंगे कि उनके चेले की दिशा बदल जाए सो वो बन जाते हैं कबाब में हड्डी। और बेचारा टूटू, अपने दोस्त और अपने गॉडफादर के बीच झूलता रहता है और इसी का सुखद परिणाम यह होता है कि फिल्म की कहानी आगे बढ़ती रहती है और यह ढाई घंटे की हो जाती है। अब फिल्मों में तो होता ही आया है कि कहानी के साथ गीत भी सुनाई पड़ते हैं सो निर्देशक ने कुछ गाने भी गवा दिए हैं। यह सब पढ़कर आपको कुछ पुरानी फिल्मों की याद आ जाए तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। क्योंकि इस फिल्म की कहानी पुरानी फिल्मों की कहानियों से हिस्से काट-काट कर और उन्हें जोड़कर बनाई गई है।

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यह एक अच्छी मसाला फिल्म है और गोविंदा के अगले फिल्मी करियर के लिए भी फायदेमंद साबित होगी। रनबीर सिंह ने काफी मेहनत की है और निर्देशक ने भी उनके लुक से लेकर उनके अंदाज पर काफी ध्यान दिया है। अली जफर अपनी ताजगी बरकार रखे हुए हैं और परिणीति चोपड़ा ने अपना बिंदासपन। इससे अधिक निर्देशक को चाहिए भी नहीं था। क्योंकि ‘झूम बराबर झूम’ की विफलता के बाद उन्हें ऐसी फिल्म की तलाश थी जिससे निर्माता को पैसा लगाने में दो बार न सोचना पड़े। निर्माता आदित्य चोपड़ा की झोली यह फिल्म भर देगी इसमें संदेह नहीं। और दर्शक का भी मनोरंजन कर देगी।