कलाकार-सैफ अली खान, सोभिता धूलिपाला, विजय राज, दीपक डोबरियाल, कुणाल राय कपूर, ईशा तलवार अक्षत ओबेरॉय, शेनाज ट्रेजरीवाला

जिन लोगों ने 2011 में ‘डेल्ही बेली’ देखी होगी, उनको ‘कालाकांडी’ ( जो एक मराठी लफ्ज है) से काफी आशाएं होंगी। आखिर ये अक्षत वर्मा की फिल्म है। पर फिलहाल उनको निराश होने के कमर कस लेनी चाहिए। ‘डेल्ही बेली’ के लेखक के रूप में अक्षत ने एक खास तरह का हास्य पेश किया था। उस फिल्म के सभी दशर्कों को याद होगा कि कैसे एक चरित्र टायलेट में पानी की जगह जूस का इस्तेमाल करता है और फिर उसके बाद क्या क्या होगा है। बतौर निर्देशक उन्होंने नयापन लाने की कोशिश यहां भी की है। कुछ नयापन है भी। लेकिन यह फिल्म एक खयाल की तरह हो गई है और इसमें से कहानी गायब हो गई हैं।

फिल्म सैफ अली खान पर टिकी है जिन्होंने एक ऐसे सफल बैंकर का किरदार निभाया जो अपनी जिंदगी संयम से जीता रहा है। पर उसे एक बड़ा झटका तब लगता है जब डॉक्टर उसे बताता है कि उसे पेट का कैंसर है और उसके हिस्से में एक से छह महीने का वक्त बचा है। अब वो क्या करे? उसके जीवन में तो भूचाल आ जाता है। कई तरह के खयाल उसे झकझोरने लगते हैं। इसी क्रम में वह एसिंड (एक तरह का ड्रग) भी ले लेता है और फिर तो उसके मन में और आखों के सामने बवंडर मचने लगते हैं। वह अपने चचेरे भाई, जिसकी शादी हो रही है, के बाल कटाने निकलता है लेकिन ऐसी ट्रांसपर्सन (उभयलिंगी) से फ्लर्ट करने लगता है जो सड़क पर खड़े होकर अपने लिए ग्राहक पटाती है। इसी दौरान अंडरवर्ल्ड में मैसेंजर और उगाही का काम करने वाले दो लोगों, जिनके किरदार विजय राज और दीपक डोबरियाल ने निभाएं हैं, की कहानी भी चलती है जो एक डॉन के लिए काम करते हैं और उसका पैसा उड़ाने की ताक में हैं।

तीसरी कहानी कुणाल राय कपूर, सोभिता धूलिपाला और शेनाज ट्रेजलीवाला की है। सोभिता विदेश जाने की तैयारी में और जिस रात उसकी फ्लाइट है, उसी रात उसकी कार से टक्कर खाकर अंडरवर्ल्ड के दो अपराधी मारे जाते हैं। ये तीनों कहानियां आपस में संबद्ध नहीं है, बस कुछके क्षणों के लिए टकराती हैं। दरअसल इस फिल्म का नाम होना चाहिए था ‘मुंबई बेल्ही’ क्योंकि इसमें मुंबई की जिंदगी की कई परतें हैं। पार्टियां हैं। उसमें ड्रग्स लेकर जानेवाले युवा हैं। अंडरवर्ल्ड है। शरीफ लोग हैं। पुलिसवाले हैं। ये परतें आपस में जुड़ी भी हैं और नहीं भी हैं। अक्षत की फिल्मों अंडरवर्ल्ड के वो कोने होते हैं, जिनमें छोटी मछलियां बड़ी बनने का प्रयास करती हैं और उस चक्कर में मारी भी जाती है। बतौर निर्देशक अक्षत ने कुछ ऐसे दृश्य रखे हैं जो वर्जना वाले समझे जाते हैं।

जैसे सैफ एक जगह ट्रांसपर्सन से कहता है उसने कभी लेडीज टायलेट नहीं देखा है और फिर दोनों एक लेडीज टायलेट में चले जाते हैं। संक्षेप में कहें तो फिल्म उस शख्स के मनोविज्ञान को पकड़ने की कोशिश करती है, जो अचानक ही पाता है कि उसके पास जीने के चंद दिन बचे हैं और फिर अपने सारे सिद्धांतों, संबंधों, और जीवन शैली की ऐसी की तैसी करना चाहता हैं। सैफ का अभिनय जरूर अच्छा है लेकिन उनके गिरते कैरियर के ग्राफ को ये फिल्म भी संभाल नहीं पाएगी। फिल्म विशेषज्ञों को पसंद आएगी लेकिन साधारण दर्शक इससे जुड़ नहीं पाएगा।