सूरत के सैय्यदपुरा से 14 साल का एक लड़का अब्दुस समद रोजीरोटी की तलाश में 1932 में वर्धा आया। उसके काका रंगीलदास पेंटर वहां एक नाटक कंपनी के लिए परदे तैयार करने का काम करते थे। रंगीलदास अपना काम इतना बढ़िया करते थे कि नाटक कंपनी उनके हुनर की कदरदान बन गई थी और उन्हें एक सहायक दे दिया। सहायक था अब्दुस। 1931 में जब फिल्मों ने बोलना शुरू किया तो धीरे-धीरे नाटक मंडलिया और थियेटर कंपनियां खामोश होने लगीं। अब्दुस की कंपनी भी बंद हो गई तो वह मुंबई आ गया, जहां फिल्म निर्माण के कई विभाग में लोगों की जरूरत पैदा हो गई थी। रंगील काका पहले ही वहां एक कंपनी में सेट बनाने और पोस्टर तैयार करने का काम करने लगे थे। तो अब्दुस भी यही काम करने लगा। 18 रुपए की तनख्वाह भी बढ़ते-बढ़ते 55 पर पहुंच गई थी।
चार जमात पढ़े अब्दुस में सीखने की ललक थी, इसलिए वह खाली वक्त फिल्म निर्माण के हर पहलू को देखने-समझने में लगाने लगा। सिनेमा के परदे पर रोशनी और अंधेरे से पैदा होने वाले चमत्कार का अब्दुस में आकर्षण बढ़ने लगा और साथ ही उसके तरक्की के रास्ते भी खुलने लगे थे। अब वह कैमरामैन बन गया था। जमाना दोरंगी सिनेमा का था। सब कुछ काले और सफेद में सिमटा हुआ था। 1936 की बात है। मुंबई के ग्रांट रोड स्थित नाज सिनेमा में ‘द इनविजिबल मेन’ (1933) नामक एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। निर्देशक जेम्स वेल ने एचजी वेल्स की विज्ञान कथा पर यह फिल्म बनाई थी, जिसमें कई हैरतअंगेज दृश्य थे। अदृश्य इनसान तो दिखाई नहीं देता था, पर परदे पर उसकी हरकतें दिखती थीं। अब्दुस तब विजय भट्ट (जिनकी बनाई ‘रामराज्य’ महात्मा गांधी की देखी एकमात्र फिल्म थी) के साथ काम कर रहा था। विजय भट्ट ने अब्दुस को वह फिल्म दिखाई और एक ‘अदृश्य मानव’ परदे पर पैदा करने के लिए कहा। इसके बाद शुरू हुई ‘ख्वाब की दुनिया’ (1937), जिसका निर्देशन विजय भट्ट कर रहे थे और ट्रिक फोटोग्राफी अब्दुस की थी।
चुनौती का सामना अब्दुस को करना था। अब्दुस रोशनी और अंधेरे के खेल से पैदा दोरंगे सिनेमा को समझ गया था। यह वह दौर था जब न तो कंप्यूटर था, न स्पेशल इफेक्ट्स। कहते हैं कि उड़ान भरने के लिए पंखों से ज्यादा हसरतों और हौसलों की जरूरत होती है। अब्दुस ने इसका तोड़ निकाला काले धागे से। काले धागे के एक बंडल के दम पर उन्होंने फिल्म में कई दृश्यों को स्पेशल इफेक्टस की तरह तैयार कर दिया। जिन चीजों को नहीं दिखाना या ढंकना होता था, काला धागा यह काम कर देता था। काले धागे के जाल पैदा यह कमाल लोगों को भी बहुत भाया। इस तरह ट्रिक फोटोग्राफी वाली हिंदुस्तान की पहली फिल्म बनी ‘ख्वाब की दुनिया’। इसके टाइटल में ट्रिक फोटोग्राफर के रूप में अब्दुस का नाम भी गया। मगर अब्दुस नहीं बाबूभाई मिस्त्री के रूप में, जिन्हें बाद में हिंदी फिल्मों की दुनिया में ट्रिक फोटोग्राफी का पितामह कहा गया। बाद में 1942 में बाबूभाई को फिल्म निर्देशन का मौका मिला, तो उन्होंने अपने छोटे भाई बटुक भट्ट के साथ मिलकर ‘मुकाबला’ का निर्देशन किया, जिसमें आस्ट्रेलिया में पैदा हुई मेरी एन इवांस यानी फियरलेस नाडिया ने पुरुषों की तरह कटे बाल और भारतीय साड़ी पहन कर एक प्रगतिशील औरत की भूमिका की थी।
फिल्म का आकर्षण एक प्रशिक्षित कुत्ता भी था। हालांकि इससे पहले ‘हंटरवाली’,‘बंबईवाली’,‘मिस फ्रंटियर मेल’, ‘पंजाब मेल’, ‘डायमंड क्वीन’ जैसी फिल्मों में उन्होंने जमकर घूंसे चलाए थे और उन्हें स्टंट फिल्मों की क्वीन कहा जाता था। बाबूभाई की आखिरी फिल्म 1990 की ‘हातिम ताई’ (जीतेंद्र, संगीता बिजलानी) थी।
