निर्देशक- मोहित सूरी

कलाकार- विद्या बालन, इमरान हाशमी, राज कुमार राव

 

ये फिल्म जैसी है वैसी होने की जिम्मेदारी किसकी है? निर्देशक मोहित सूरी की या इसके लेखक- महेश भट्ट की। सूरी महेश भट्ट के रिश्तेदार हैं और इस फिल्म पर महेश भट्ट की छाप दिखती है। कह सकते हैं कि ‘हमारी अधूरी कहानी’ भट्ट घराने की फिल्म है। पर फर्क भी है।

इमरान हाशमी इसमे हैं लेकिन अपनी छवि से अलग। इसमें उनके चुंबन वाले दृश्य नहीं हैं। वे एक शरीफ इंसान और जिम्मेदार प्रेमी की तरह इस फिल्म में दिखते हैं। इस चक्कर में थोड़े दयनीय भी हो गए हैं। दरअसल ये लिजलिजी भावुकता से भरी फिल्म है। पर इसका प्रेम त्रिकोण भी दयनीय हो गया है। महेश भट्ट की कहानी इतनी बेडौल है कि फिल्म बहुत अच्छी लोकेशन, शूटिंग और शानदार सिनेमेटोग्राफी के बावजूद प्रभावशाली नहीं हो पाती। जब नींव कमजोर है तो इमारत बुलंद कैसी होगी?

विद्या बालन ने इसमें वसुधा नाम की महिला का किरदार निभाया है। विद्या एक बच्चे की मां है और उसका पति हरि (राज कुमार राव) अचानक गायब हो जाता है। पुलिस को शक है कि वो माओवादी है। वसुधा एक पंच सितारा होटल में फ्लोरिस्ट की नौकरी करती है। कमरे को फूलों से सजाने की उसकी कला पर मोहित होटल के मालिक अरव (इमरान हाशमी) का दिल भी आखिरकार इस फ्लोरिस्ट पर आ जाता है और वो उसे दुबई के अपने होटल में भेज देता है। इस प्रेम त्रिकोण का नाटकीय क्षण तब आता है जब हरि वापस आ जाता है।

यानी वसुधा के सामने सवाल है वो अपने पुराने साजन की हो या नए आशिक की। और फिर मामला आत्म बलिदान का हो जाता है। ‘मैं खुश हूं मेरे आंसुओं पे न जाना’ वाली स्थिति हो जाती है। दर्शक के सामने एक ही विकल्प बचता है वो भी आत्म बलिदानी हो जाए। कम से कम टिकट के पैसे का बलिदान तो उसे करना ही पड़ता है।

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विद्या बालन ने ‘डर्टी पिक्चर’ और ‘कहानी’ से अपनी जो छवि बनाई थी वो हमारी अधूरी कहानी के किरदार से आगे नहीं बढ़ती है बल्कि पीछे जाती है। इस फिल्म वे ऐसी महिला के रूप में दिखती हैं जो हालात की मारी लगती है। एक दृश्य में तो विद्या बालन इमरान हाशमी के पैर छूती हैं।

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ये क्या है भट्ट साहब? किस जमाने की औरत है वसुधा, जो बार बार बिसूरती रहती है? अपना मंगलसूत्र उतारे या न उतारे, इस दुविधा में जीती वसुधा लाचार और बेचारी औरत की तरह दिखती है। एक तरफ हिंदी फिल्मों में आत्मसजग और दमदार महिला किरदार उभर रही हैं तो दूसरी तरफ महेश भट्ट और मोहित सूरी की जोड़ी उस औरत को सामने ला रही है जो न सिर्फ फिल्मों में बल्कि आम जिंदगी में भी कई दशक पुरानी लगती है। हालांकि निर्देशक ने आखिर में थोड़ा सा नारीवादी भाषण दे दिया है जिसमें विद्या बालन कुछ इस तरह की बात कहती है-

कलाई हमारी (यानी औरतों की) चूड़ी तुम्हारे नाम की (यानी पुरुषों की), गला हमारा तो मंगलसूत्र तुम्हारा, हाथ हमारा तो टैटू तुम्हारे नाम का। पर ये सब भाषणबाजी ही है।

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निर्देशक दर्शकों को बस्तर से लेकर दुबई की यात्रा करा देता है पर न तो ठीक से दुबई दिखता है और न बस्तर। लिली के फूलों के बहाने फिल्म को थोड़ा काव्यात्मक बनाने के प्रयास जरूर किया गया है कि लेकिन अंतत: ये फिल्म बासी फूलों की तरह गंधहीन ही है। सच पूछिए तो फिल्म कहानी ही आधी-अधूरी रह गई है। राज कुमार राव का किरदार जरूर अपनी मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों की वजह से कुछ समय तक याद रखे जाने लायक है पर इमरान हाशमी तो बिल्कुल इकहरे लगते हैं।