निर्देशक : कृष,
कलाकार : अक्षय कुमार, श्रुति हसन, सुमन तलवार, जयदीप अहलावत, सुनील ग्रोवर
पुरानी कहावत है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा। लगता है कि निर्देशक कृष ने यही सोच कर ‘शोले’ के खलनायक के नाम का एक सकारात्मक इस्तेमाल करने का फैसला किया। इस तरह का फैसला हर निर्देशक या निर्माता का अधिकार है।
लेकिन दो घंटे दस मिनट की इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक इस नतीजे पर पहुंचेगा कि गब्बर के नाम को भुनाने की यह कोशिश वैसी ही है जैसे कोई धर्मराज युधिष्ठिर पर धारावाहिक बनाए और उसका नाम दुर्योधनकथा रख दे। माना कि ‘शोले’ का गब्बर एक ब्रांड है (ऐसा फिल्म में कहा भी गया है)। लेकिन आप दुर्योधन को कभी युधिष्ठिर नहीं बना सकते। ऐसा प्रयास हास्यास्पद होगा और यही इस फिल्म के साथ हुआ है।
अक्षय कुमार ने इस फिल्म में आदित्य नाम के एक अध्यापक का किरदार निभाया है जो एक कालेज में भौतिकशास्त्र पढ़ाता है। वैसे तो इस कालेज का भवन काफी विशाल है और जाहिर है कि ऐसे संस्थान में बड़े-बड़े क्लासरूम होंगे। लेकिन आदित्य की क्लास खुले में लगती है, शांतिनिकेतन की तरह। और वह भौतिकशास्त्र ऐसे पढ़ाता है मानो अध्यापक न होकर फिजिकल इंस्ट्रक्टर हो।
लेकिन इस अध्यापक आदित्य का एक और चेहरा है जिसकी असलियत कम लोग जानते हैं। आदित्य गब्बर बनके भ्रष्ट अफसरों और लोगों को अगवा करता या कराता है और उनकी हत्या कर देता है ताकि समाज से भ्रष्टाचार खल्लास हो जाए। और यह संदेश भी जाए कि कोई रहनुमा है जो नाजायज तरीकों से धन कमाने वालों को सजा देता है। आदित्य के कुछ शिष्य भी उसकी मदद करते हैं। दुनिया नहीं जानती कि आदित्य ही गब्बर है पर वो गब्बर को पसंद करती है।
गब्बर सिर्फ भ्रष्ट अधिकारियों को ही सजा नहीं देता बल्कि उन बड़े-बड़े अस्पतालों की हेराफेरी को सामने लाता है जो मरीजों के इलाज से ज्यादा दिलचस्पी उनसे पैसा लेने में रखते हैं और अनाप-शनाप बिल बनाते हैं। यानी गब्बर काम तो अण्णा हजारे वाला करता है लेकिन अहिंसा के रास्ते से नहीं बल्कि हिंसा के सहारे। फिर भी लोग उसके दीवाने हैं। बेहतर होता कि निर्देशक इस गब्बर से ये बोल वाला गाना भी गवा देता-खलनायक नहीं नायक हूं मैं।
फिल्म पूरी तरह से अक्षय कुमार की छवि को भुनाने के लिए बनी है। आजकल बालीवुड में कई ऐसी फिल्में बन रही हैं जिसमें हीरो की इमेज के इर्द-गिर्द कहानी लिखी जाती है-जैसे सलमान खान की ‘जय हो’ या ‘किक’। हर फ्रेम में सिर्फ हीरो दिखता है और बाकी के कलाकर इसलिए मौजूद रहते हैं कि या तो हीरो से पिट सकें या उसके समर्थक हो जाएं। गब्बर में भी सिर्फ यही होता है। लगभग हर फ्रेम में अक्षय कुमार हैं।
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श्रुति हासन फिल्म की हीरोइन हैं लेकिन गूगल क्या कहता है, ये बताने और अक्षय कुमार के बगल में खड़े होने के अलावा कोई काम नहीं है। उनकी कोई भावनात्मक भूमिका नहीं है। करीना कपूर भी इतने कम समय के लिए हैं कि उनके चरित्र की कोई छाप नहीं पड़ती। और चित्रांगदा सिंह का इस्तेमाल सिर्फ ‘कुंडी ना खड़काओ राजा’ आइटम गीत के लिए किया गया है।
सुमन तलवार ने खलनायक पाटील की भूमिका निभाई है लेकिन उनमें भी दम नहीं है। वैसे भी गब्बर के सामने कोई खलनायक क्या टिकेगा?
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‘गब्बर इज बैक’ 2002 में आई तमिल फिल्म ‘रामन्ना’ (निर्देशक एआर मुरगदौस) का हिंदी रूपांतरण है। इसके तेलुगु और कन्नड़ रूपांतरण भी बन चुके हैं।
हिंदी फिल्मकारों या निर्देशकों के पास कोई आइडिया नहीं होता है तो वे या तो हालीवुड की तरफ जाते हैं या दक्षिण भारत की ओर। और इस तरह बासी विषय वाली फिल्में हिंदी में ज्यादा बनती हैं। हिंदी फिल्मकारों में मौलिकता की कमी का खमियाजा दर्शकों को भुगतना पड़ता है।