15 अगस्त 1975 के दिन ही देश के विभिन्न सिनेमाघरों में मशहूर हिन्दी फिल्म शोले रिलीज हुई थी। हालांकि रिलीज के शुरुआती दिनों में यह फिल्म सिनेमाघरों में ज्यादा नहीं चल पाई थी, लेकिन बाद में यह फिल्म सुपरडुपर हिट साबित हुई। इस ब्लॉकबस्टर फिल्म का सबसे यादगार कैरेक्टर अगर कोई है तो वो है ‘डाकू गब्बर सिंह।’ फिल्म में इस रोल को निभाया था अमजद खान ने। गझिन कांटेदार दाढ़ी और उससे टपकती क्रूरता, न दिखने वाली गर्दन में फंसा ताबीज, कंधे पर लटकी कारतूस की पेटी, कमर के बजाय हाथ में झूलती बेल्ट, वो ‘अरे ओ सांभा! कितने आदमी थे’ वाला सवाल, वो खूंखार हंसी और बात-बात के बाद आ..थू! गब्बर सिंह का हर डायलॉग 43 साल बाद भी लोगों के जेहन में ताजा है।

फिल्म में अमजद खान का यह कैरक्टर दरअसल असल जिंदगी से प्रेरित था। जी हां, यह बात सच है कि कभी ग्वालियर की पहाड़ों में रियल डाकू गब्बर सिंह का खौफ हुआ करता था। ‘ऊपर ईश्वर, नीचे रखीश्वर, और बीच में गब्बर भैया… इनसे पत रखियो शीतला मैया।’ यह गब्बर सिंह का मशहूर डायलॉग हुआ करता था। 50 के दशक में चंबल में 50-50 कोस दूर तक इस डकैत की दहशत थी। इस गब्बर पर नाक काटने का फितूर सवार था। कहा जाता है कि ग्वालियर के खूंखार गब्बर सिंह ने कभी रोटी के लिए, कभी दूध के लिए, कभी दुश्मनी निकालने के लिए तो कभी शीतला मैया को भेंट चढ़ाने के लिए कई लोगों की नाक और कान काट ली। गब्बर ने जिन लोगों की नाक-कान काटी उसमें ज्यादातर पुलिस वाले शामिल थे।

जानकारी के मुताबिक भिंड के गांव डांग में गब्बर सिंह का जन्म साल 1926 में हुआ था। पहलवानी के शौकिन गब्बर ने 1955 में अपना गांव छोड़ दिया और उस वक्त के चर्चित डाकू कल्याण सिंह गुर्जर के गैंग में शामिल हो गया। हालांकि डाकू कल्याण सिंह से गब्बर सिंह की ज्यादा बनी नहीं और इस खूंखार डकैत ने जल्दी ही अपना अलग गैंग बना लिया। चंबल की घाटियों में गब्बर सिंह का आतंक कुछ ऐसा था कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश समेत तीन राज्यों की पुलिस उसकी तलाश में दिन-रात एक कर जुटी हुई थी। इतना ही नहीं उस वक्त पुलिस ने इस डाकू पर पचास हजार रुपये का इनाम भी रखा था।

यह भी कहा जाता है कि गब्बर सिंह के आतंक से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी परेशान थे। साल 1959 में गब्बर सिंह को उसके अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी युवा पुलिस अधिकारी राजेंद्र प्रसाद मोदी को सौंपा गया। राजेंद्र प्रसाद मोदी उस वक्त डिप्टी एसपी थे। इसी साल 13 नवंबर को पुलिस ने गब्बर सिंह को उसकी मांद में घेर लिया। इस दौरान पुलिस और डाकू गब्बर सिंह गैंग की तरफ से घंटों मुठभेड़ हुई। मुठभेड़ में पुलिस की तरफ से फेंके गए एक ग्रेनेड से गब्बर सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया और फिर कुछ ही देर बाद चंबल के इस आंतक का सफाया हो गया। पुलिस वालों ने गब्बर सिंह गैंग के बदमाशों को चुन-चुन कर मार डाला। उस वक्त गांव के कई लोगों ने रेलगाड़ी और बसों की छत पर चढ़कर इस भीषण एनकाउंटर को देखा था।

शोले फिल्म के लेखक सलीम खान थे। सलीम खान के पिता मध्य प्रदेश पुलिस में थे और अक्सर वो अपने पिता से डाकू गब्बर सिंह के किस्से सुना करते थे। अब भले ही शोले के डाकू गब्बर सिंह की कहानी रियल लाइफ के डाकू गब्बर सिंह से पूरी तरह ना मिलती हो, लेकिन फिल्म की कहानी लिखते वक्त डाकू गब्बर सिंह की कहानियां उनके दिमाग में जरूर थीं। उस वक्त फिल्म में गब्बर सिंह का रोल डैनी को दिया जाना तय हुआ था, लेकिन डैनी के किसी अन्य फिल्म की शूटिंग में व्यस्त होने की वजह से यह रोल अमजद खान को मिल गया।