निर्देशक-श्रीराम राघवन
कलाकार-वरुण धवन, नवाजुद्दीन सिद्दिकी, हुमा कुरेशी, विनय पाठक, कुमुद मिश्रा, राधिका आप्टे, यामी गौतम, दिव्या दत्ता।
नाम से ही लगता है कि बदलापुर बदला लेने की कहानी है। इसलिए स्वाभाविक है कि इसमें प्रतिशोध केंद्र में है और इसी कारण प्रतिशोध के साथ जो मनोविज्ञान जुड़ा होता है उसके भी अक्स इसमें हैं। ये दीगर बात है कि जब तक प्रतिशोध में सिर्फ मनोविज्ञान रहता है और जीवन का फलसफा नहीं जुड़ता वो पूरी कहानी सिर्फ हिंसा के मनोभाव तक सिमट जाती है। बदलापुर में काफी हद तक यही होता है और मोटे तौर पर सिर्फ बदले की भावना की कहानी होने के कारण ये अपने प्रभाव में छोटी होकर रह गई है। हालांकि इसे असफल फिल्म नहीं कहा जाएगा लेकिन इसमें गहराई की कमी है। बावजूद मनोवैज्ञानिक गुत्थियों की अच्छी प्रस्तुति के।
वरुण धवन ने इसमें रघु नाम के युवा का किरदार निभाया है। रघु की पत्नी (यामी गौतम) और बच्चे को दो बैंक डकैत, लियाक (नवाजुद्दीन) और हरमन (विनय पाठक) मार देते हैं। बच्चा तो कार से नीचे गिरने से मर जाता है और पत्नी को गोली मार दी जाती है। इनमें एक डकैत हरमन तो भाग जाता है लेकिन लियाक पकड़ा जाता है। पकड़े जाने के बाद लियाक कहता है उसका तो सिर्फ इस्तेमाल किया गया असल डकैत तो हरमन है। फिर भी लियाक को सजा मिलती है। बीस साल की। और इन बीस सालों में रघु क्या करता है? वो इंतजार करता है लइक के छूटने का। वो बदलापुर नाम की जगह पर रहने लगता है। जब पंद्रह साल बाद लियाक छूटता है तो रघु उससे बदला लेने की योजना पर अमल शुरू कर देता है। फिल्म इसी बात पर टिक जाती है कि रघु अपना बदला कैसे लेगा?
श्रीराम राघवन ने पिछली फिल्म एजेंट विनोद बनाई थी जो सिर्फ इस वजह से ज्यादा नहीं चली कि वो राजनीतिक रूप से सही (यानी पोलिटिकली करेक्ट थी) और उनकी इस नई फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है कि ये राजनीतिक रूप से गलत (पोलिटिकली इनकरेक्ट) है। आखिर जो फिल्म बदले का संदेश देती है वो कलात्मक स्तर पर अपनी वैधता कैसे बनाए रख सकती है? और मसला सिर्फ यही नहीं है।
वरूण की ‘बदलापुर’ शाहिद कपूर की ‘हैदर’ से कितनी अलग?
पंद्रह साल तक बदले की भावना में जलते रघु या वरुण धवन को लगभग चालीस साल का प्रौढ़ दिखना चाहिए पर वे ऐसा नहीं दिखते हैं। नतीजतन उनके चरित्र में जो बेमेलपन पैदा जाता है वो दर्शक को स्वीकार नहीं होता है। वरुण धवन एक अच्छे रोमांटिक हीरो हैं। हालांकि ये जरूरी नहीं कि वे हर फिल्म में रोमांटिक भूमिकाएं ही करते रहें पर किसी भी चरित्र का प्रामाणिक होना जरूरी है। इसमें कोई शक नहीं कि राघवन ने इस फिल्म में काफी मेहनत की है लेकिन हर कहानी की अपनी नैतिकता होती है और उसी की तरफ निर्देशक का ध्यान नहीं गया है। माना कि उन्होंने चरित्रों के भीतर कुछ यौन ग्रंथियों को दिखलाकर फिल्म में जटिलता लाने की कोशिश की है और इसे गरमागरम बनाने की भी, पर इससे फिल्म की गुणवत्ता में इजाफा नहीं होता है।
वरुण धवन की अपेक्षा फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकी का चरित्र ज्यादा पेचीदा और प्रभावशाली है। शुरू से अंत तक उनके चरित्र के कई पक्ष उभरते हैं। हुमा कुरेशी ने सेक्स वर्कर का किरदार निभाया है और जितनी देर तक वे रहती हैं अपना प्रभाव छोड़ती हैं। यामी गौतम का किरदार ही छोटा है इसलिए वे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती थीं। एक अच्छी शुरुआत से साथ शुरू हुई ये फिल्म अंत तक पहुंचते पहुंचते अपने ही बनाए जाल में उलझ जाती है।