निर्देशक- हंसल मेहता
कलाकार- राजकुमार राव, राजेश तैलंग, केवल अरोड़ा

अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल (यानी उसका किरदार निभानेवाले शख्स) को पाकिस्तान में जेहादियों ने अगवा कर लिया। उसे एक सुनसान मकान में रखा गया है। एक रात उसे लगता है कि वह आतंकवादियों के कब्जे से निकल सकता है। वह भागता है। रात के अंधेरे में उसे गोली लगती है और वह गिर जाता है। पीछे से आता है उमर शेख। वह गोली खाकर गिरे पर्ल को राइफल के हत्थे से मारता है और मारता ही चला जाता है। देर तक। वहशी अंदाज में। उसके बाद वह एक बड़ा-सा छुरा निकालता है। दर्शकों को लगता है कि वह शायद पर्ल का गला रेत रहा है। अंदाजा सही साबित होता है। उमर के चेहरे पर खून की लकीरें आती हैं। चश्मे पर भी। वह चश्मा साफ करता है। एक जबरदस्त हंसी उसके चेहरे पर उभरती है।

यह खुशी तब और बढ़ी हुई दिखती है, जब उमर पर्ल के कटे हुए सिर को अपने हाथ से उठाता है। ऐसा लगता है कि उसने पर्ल का सर काटकर जन्नत पाने की खुशी हासिल कर ली हो। उसके चेहरे पर खुशी को दिखानेवाले ये भाव आंतरिक विकृति को छिपा नहीं पाते जो एक नृशंस हत्यारे या जेहादियों के भीतर होती है। ये दृश्य हैं हंसल मेहता की नई फिल्म ‘ओमेर्ता’ के और अलग से कहने की जरूरत नहीं कि ये इस फिल्म का सबसे हृदय विदारक दृश्य है। झकझोर देनेवाला। यह फिल्म एक आतंकवादी के मन और सोच की बनावट को भी सामने लाती है। जब किसी में बदले की भावना तेज हो जाती है, किसी का गला रेतने में कोई दुविधा नहीं बचती है। हंसल मेहता हर बार अलग तरह की फिल्म लेकर आते हैं। यानी वे फॉर्मूला फिल्मों को पूरी तरह नकारते हैं। इस बार भी उन्होंने ‘ओमेर्ता’ में एक नई राह पकड़ी है।

फिल्म एक जेहादी आतंकवादी की मानसिक बनावट को सामने लाती है। आतंकवादी का नाम है उमर शेख, जो वैसे तो ब्रितानी मूल का है लेकिन अल-कायदा में शामिल हो गया था। उमर भारत भी आया था और यहां आकर उसने कुछ विदेशियों की हत्या की थी। पर उस पर सबसे बड़ा इल्जाम अमेरिकी मूल के पत्रकार डेनियल पर्ल की पाकिस्तान में हत्या का है और उस हत्या के आरोप में वह पाकिस्तानी जेल में आज भी बंद है। यह माना जाता है कि आइएसआइ ने उसकी मदद की। 1999 में भारत सरकार ने भारतीय विमान आइसी 814 को अगवा किए जाने के बाद भारतीय विमान यात्रियों को बचाने के एवज में जिन बंधकों को छोड़ा था, उनमें एक उमर भी था।

‘ओमेर्ता’ वैसे तो इतालवी भाषा का शब्द है और ये वहां के माफिया सरगानाओं के बीच हर हाल में चुप रहने की मानसिकता को जतानेवाला है। हालांकि मेहता ने ये नाम क्यों रखा, समझ में नहीं आता। बहरहाल, यह फिल्म इस बात की तरफ भी संकेत करती है कि कैसे यूरोप में रहनेवाले कुछ मुसलिम भी आतंकवाद की तरफ खिंचे चले जाते हैं। मेहता ने भारत आतंकवाद के आरोपी रहे शाहिद पर भी एक फिल्म बनाई थी। फिल्म का नाम भी ‘शाहिद’ था। पर ‘ओमेर्ता’ ‘शाहिद’ से अलग तरह की फिल्म है। ये बड़े ही ठंडेपन से दिखाती है कि जेहाद की विचारधारा किस तरह कुछ लोगों को अपनी तरफ खींच रही है और ऐसे लोग किस तरह सिर्फ बदले की भावना में जीते हैं। फिल्म कुछ-कुछ डॉक्यूमेंट्री की तरह है। निर्देशक ने अपनी तरफ से कोई नजरिया पेश नहीं किया है कि कोई आतंकवादी क्यों बनता है। उसका जोर इस बात पर है कि आतंकवाद कैसे एक व्यक्ति को हत्या की मशीन में बदल देता है।