निर्देशक- सुधीर मिश्रा
कलाकार- राहुल भट्ट, ऋचा चड्ढा, अदिति राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विपिन शर्मा, अनुराग कश्यप
जो लोग ‘देवदास’ या उसके लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रशंसक रहे हैं उन्हें सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘दास देव’ विचित्र लगेगी। जो लोग पर्दे पर देवदास की भूमिका निभाने के लिए पीसी बरुआ, दिलीप कुमार या शाहरुख खान के फैन रहे हैं वे भी इसे पसंद नहीं करेंगे। और जो प्रयोग की वकालत करते हैं और कहानियों में तोड़फोड़ के कायल रहते हैं, उनको भी यह अच्छी नहीं लगेगी। ‘दास देव’, जो देवदास की कहानी पर बनी है, एक अधकचरी-सी फिल्म है। मोटे तौर पर ये अनुराग कश्यप मार्का फिल्म है, जिसमें देवदास एक गैंगस्टर यानी खून-खराबा करनेवाला शख्स बन गया है। पूरी फिल्म गोलाबारी, अवैध संबंधों के किस्से और भ्रष्ट राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है। सुधीर मिश्रा ने शरत चंद्र की कहानी में ‘गैंग्स ऑफ वसेपुर’ की मिलावट कर दी है। ये संयोग नहीं है कि अनुराग कश्यप इस फिल्म में बतौर मेहमान कलाकार हैं। पर वो सिर्फ दिखावे भर के लिए नहीं है। संवाद से लेकर दृश्य रचना तक पर अनुराग कश्यप की छाप है। हालांकि सुधीर मिश्रा के मुताबिक, ‘इसमें शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ की छौंक है।’ मगर लगता है मिश्राजी ने दूध में पानी की जगह पेप्सी मिला दिया है।
‘दास देव’ उत्तर प्रदेश के एक गांव पर केंद्रित है, जहां एक किसान नेता विश्वंभर (अनुराग कश्यप) किसानों की जमीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। देवदास (राहुल भट्ट) उसका बेटा है। विश्वंभर की हत्या हो जाती है और देवदास आगे चलकर नशेड़ी बन जाता है। उसकी बचपन की प्रेमिका पारो (ऋचा चड्ढा) का पिता किसानों की बेहतरी के लिए काम करता है और विश्वंभर का चेला है। विश्वंभर की हत्या के बाद उसका भाई अवधेश (सौरभ शुक्ला) नेता बन जाता है।
वह देवदास और उसकी मां का खयाल रखता है। अवधेश एक अपराधी किस्म का आदमी है। उधर कॉरपोरेट हितों के लिए काम करनेवाली चांदनी (अदिति राव हैदरी) चंद्रमुखी की तरह है। वह देवदास को चाहती है इसलिए अपने बॉस का साथ छोड़ देती है। पारो से एक बुजुर्ग नेता रामाश्रय (विपिन शर्मा) शादी करता है, जो नपुंसक है। लेकिन उसके अपने स्वार्थ हैं जिसके लिए वो पारो के साथ दगा कर सकता है। ऐसे में देवदास क्या करे? उसे तो हथियार उठाना पड़ेगा। हथियार उठाकर वो किसकी हत्या करेगा?
साफ है कि यह फिल्म देवदास की मूल कहानी की एक पैरोडी है और पैरोडी कभी मूल की जगह नहीं ले सकती। इसलिए सुधीर मिश्रा की ये फिल्म खीर खाने के लिए लालायित लोगों को मटन बिरयानी का स्वाद देगी। फिल्म की एक और कमजोरी यह है कि इसमें देवदास का व्यक्तित्व उभर नहीं पाता। या तो राहुल भट्ट में वह प्रतिभा नहीं है या निर्देशक ने इसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। हो सकता है कि दोनों ही बातें हों। बेहतर तो होता कि किसानों की समस्याओं और कुछ किसान नेताओं की चालाकी व राजनीति में प्रवेश कर चुके अपराधियों पर सुधीर मिश्रा अलग फिल्म बनाते। माना कि जमाना मिक्सिंग का है लेकिन मिक्सिंग के भी अपने नियम होते हैं। आप शरतचंद्र को अनुराग कश्यप के चश्मे से देखेंगे तो आंसू का कतरा भी व्हिस्की की बूंद दिखाई देगा। बहुत कम दर्शक होंगे जो इस फिल्म को देखने के बाद सुधीर मिश्रा को कहेंगे कि आपने एक अच्छी फिल्म बनाई है। ज्यादातर दर्शक तो यही कह सकते हैं कि ‘देवदास’ उपन्यास का इतना कबाड़ा क्यों किया भाई?