निर्देशक- उमेश शुक्ला

कलाकार- अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी

निर्देशक उमेश शुक्ला की नई फिल्म ‘102 नॉट आउट’ का मूल मंत्र है-जब तक जियो मजे से रहो। यानी उम्र कितनी भी हो जाए, न हंसना छोड़ना है, न उत्साह में कमी आने देना है। चिंता से जिंदगी बेमजा हो जाएगी। और हां, बुढ़ापे में बेटे-बेटी देखभाल नहीं करते, तो क्या हुआ? अपना जीवन तो शान से जीते रहें। फिल्म में अमिताभ बच्चन ने 102 साल के दत्तात्रेय बखारिया नाम का ऐसा किरदार निभाया है जो ऊर्जा से भरपूर है। वह सोलह साल और जीना चाहता है। उसका बेटा बाबू लाल बखारिया भी 75 साल का हो चुका है मगर हमेशा इस बात से डरा रहता है कि कहीं बीमार न हो जाए। वह नहाता भी है तो घड़ी देखकर कि कितनी देर तक शावर के नीचे खड़ा रहना है। वह रोज सुबह डॉक्टर के पास जाता है ताकि ब्लड प्रेशर के बढ़ने-घटने की जांच करा सके।

बाबू लाल का एक बेटा है जो अमेरिका में रहता है और गाहे-बगाहे फोन कर लेता है। एक दिन दत्तात्रेय बखारिया अपने बेटे को कहता है कि वह वृद्धाश्रम में चला जाए। दत्तात्रेय का कहना है कि बाबूलाल के घर में रहने से उसके यानी दत्तात्रेय बखारिया के 118 साल जीने की योजना पर पानी फिर सकता है। बाबू लाल इसके लिए तैयार नहीं होता तो दत्तात्रेय उसके सामने अजीब शर्तें रखता है। फिल्म उसके बाद जिस दिशा में मुड़ती है वह है कैसे बुढ़ापे में माता-पिता को भारत में छोड़कर भारतीय युवक अमेरिका या विदेश चले जाते हैं और फिर वहीं के हो के रह जाते हैं। ऐसे बच्चों के साथ माता-पिता क्या सलूक करें? फिल्म हंसी से भरपूर है। अमिताभ बच्चन की हर अदा, हर संवाद और हर भाव-भंगिमा ठहाके लगाने की तरफ ले जाती है।

इधर की कई फिल्मों में अमिताभ अभिनय की नई बुलंदी की तरफ जाते दिख रहे हैं और ये फिल्म भी उसी कड़ी में है। हालांकि ऋषि कपूर ने भी बहुत अच्छा काम किया है। उस टिपिकल उम्रदराज आदमी की तरह जो अपनी सेहत को लेकर हमेशा चिंतित रहता है। लेकिन एक तो अमिताभ के भीतर ही ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ इतना अधिक है कि दर्शक तुरंत जुड़ जाते हैं और दूसरा फिल्म की कहानी ही कुछ ऐसी है कि दर्शक लगातार इसी बात में मगन रहता है कि 102 साल के आदमी के भीतर इतनी जिंदादिली! जिमित त्रिवेदी का किरदार छोटा है लेकिन उसे उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से निभाया है। निर्देशक उमेश शुक्ला की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने संतानों द्वारा अपने माता-पिता की उपेक्षा पर इतनी सरस और मजेदार फिल्म बनाई है।

फिल्म का मूल विचार अमिताभ बच्चन की पुरानी फिल्म ‘बागवान’ से मिलता-जुलता है हालांकि उमेश शुक्ला ने उसी बात को अलग ढंग से कहा है। फिल्म बनने से पहले एक सफल ये एक सफल गुजराती नाटक भी रहा है। हास्य के अलावा फिल्म जज्बाती पहलुओं से भी भरपूर है। फिल्म परिवार की धारणा को पुष्ट करनेवाली है। एक सवाल दर्शकों के मन में खड़ा हो सकता है कि क्या विदेश चले गए बेटे सच में ऐसे हो गए हैं जिनको देश में रह गए अपने माता-पिता की परवाह नहीं रहती? या इसका कोई दूसरा पहलू भी है? पर यह अलग सवाल है और इसके बावजूद इस फिल्म का दर्शकों से जुड़ाव रहेगा।