कान के मुख्य प्रतियोगिता खंड की तीन फिल्में तीन देशों के तीन शहरों में तीन अधेड़ स्त्रियों के संघर्ष की वैश्विक कहानियां कहती हैं। ये हैं-स्पेन के पेद्रो अलमदोर की ‘जुलेटा’, ब्राजील के क्लेबर मेंडोनिका फ्लहो की ‘अक्वेरियस’ और फिलीपींस के ब्रिलांते मेंडोजा की ‘मा रोजा’। जो पेद्रो अलमोदोर को जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि उनका सिनेमा सबसे अलग है। कान में वे फिर मुख्य प्रतियोगिता खंड में अपनी नई फिल्म -‘जुलेटा’ के साथ आए हैं। उनका कहना है कि उनके लिए सिनेमा दो संवादों के बीच की चुप्पियों मे खिलता है।

‘आल अबाऊट माई मदर’ (1999)और ‘वोल्वर’ (2006)के बाद ‘जुलेटा’ में वे फिर अपने पसंदीदा विषय पर लौटे हैं- मां- बेटी संवाद। पति जोआन की अकाल मृत्यु के बाद जुलेटा ने अपनी बेटी अंतिया की देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी। दोनों के बीच 10 साल तक की अंतहीन चुप्पी में फिल्म स्पेन के सुंदर भूगोल और यादों के फ्लैश बैक में चलती है। जब अंतिया 18 साल की होती है तो जुलेटा को पता चलता है कि वह उसके बारे में कितना कम जानती है। मां-बेटी के संवादहीन साहचर्य में फिल्म का एक एक फ्रेम कई-कई कहानियां कह जाता है। आमतौर पर साझा दुख लोगों को पास लाता है, पर यहां उलटा होता है। जुलेटा और अंतिया अंतहीन चुप्पी में एक-दूसरे से दूर होते जाते हैं।

फिल्म का एक बड़ा हिस्सा उस चिट्ठी के साथ चलता है जो जुलेटा अपनी बेटी अंतिया को लिखती है। यह एक विलक्षण पत्र है जिसमें एक मां अपने संघर्ष, अपराध बोध, नियति और उन रहस्यमय परिस्थितियों का खुलासा करती है जिससे वह आजीवन जूझती रही है। अलमोदोर ने बीच बीच में रेलगाड़ी का बड़ा कलात्मक एवं रोमांटिक इस्तेमाल किया है। यह कैसे संभव है कि जिसे हम दिलो-जान से चाहते हैं -जिसे हम जिंदगी मान बैठते हैं वही एक दिन ऐसा हो जाता है, जैसे उसके लिए हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसी बात को अलमोदोर ने जिस सघन सिनेमाई जीवंतता में रचा है, वह विश्व सिनेमा में कम देखने को मिलता है। इस तीन पीढ़ियों की पारिवारिक जैसी प्रेम कथा में उनका सिनेमाई व्याकरण चुप्पियों के बीच हजार आवाजों से ज्यादा असर करता है।

ब्राजील की फिल्म ‘अक्वेरियस’ की रेड कारपेट और प्रदर्शन के पहले और बाद में ग्रैंड थियेटर लूमिएर में हजारों दर्शकों ने वहां की सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ बैनर दिखा कर और नारे लगा कर विरोध जताया। पैसठ साल की रिटायर विधवा संगीत शिक्षिका क्लारा अपना वह दुमंजिला मकान नहीं बेचना चाहती जिसे तोड़ कर एक कंपनी बहुमंजिला अपार्टमेंट बनाना चाहती है। दोनों के बीच की रहस्यमय लड़ाई कई नाटकीय मोड़ लेने के बाद क्लारा की जिद पर खत्म होती है कि वह घर बेचने की जगह मर जाना पसंद करेगी। उसके सामने अपने परिवार को बचाने की चुनौती है। बड़े प्रलोभनो को ठुकराते हुए वह अपनी कलात्मक शांति चाहती है। कारपोरेट सब कुछ हड़प लेना चाहता है। कई बार इस शीतयुद्ध में हताश होने के बाद भी वह शाम को पसंदीदा संगीत और शैंपेन के साथ जिस रस के साथ जीवन का सुख लूटती है, वह एक जवाबी टिप्पणी है।

फिल्म ‘मा रोजा’ एक गरीब बस्ती में परचून की दुकान चलाने वाली मां रोजा की कहानी है। उसके पति को ड्रग बेचने के जुर्म में पुलिस पकड़ लेती है। पचास हजार की रिश्वत जुटाने उनके तीन बच्चे मनीला की सड़कों की खाक छानते हैं। रोजा और उसके बच्चे भ्रष्ट पुलिस से आजादी खरीदने के लिए कुछ भी कर गुजरने पर आमादा हैं। जिस तरह से कैमरा मनीला के तलछँट के जीवन को दिखाता है, वह विस्मयकारी है। इस 24 घंटे के जीवन की सामूहिक सचाइयों का कोलाज सिनेमा को वैचारिक मोड़ देता है। यहां भी कई सवाल चुप्पियों के दृश्यों में रचे गए हैं। हल्की बारिश और कीचड़ कचरे के बीच धुंधली रौशनी में कैमरा पति-पत्नी और उनके तीन बच्चों के सामूहिक दुखों का जो कैनवस रचता है, वह विचलित करने वाला है।

ये तीनों फिल्में हमारे वैश्विक समय में तीन स्वाभिमानी स्त्रियों के जरिए जो कहानियां कहती हैं – जिस असरकारी ढंग से कहती हैं, वह चकित करता है। स्पेन , फिलीपींस और ब्राजील – तीन अलग-अगल देशों की स्त्रियों को जो चीज जोड़ती है, वह केवल उनका दुख नहीं है, वह उनकी न झुकने की ताकत है। हम विश्व सिनेमा में इस नई औरत को देख कर खुश हो सकते हैं। कान फिल्मोत्सव की यह मान्यता रही है कि सिनेमा दुनियाभर में मनुष्य की आजादी का निगेहवान है। जब भी इस आजादी पर हमले होते हैं, सिनेमा अपनी पूरी कलात्मक साहस के साथ इसके खिलाफ सीना तान कर खड़ा होता है।