बिना किसी बड़े सितारे के भी अच्छी फिल्में बन जाती हैं। हां, इतना जरूर होता है कि ऐसी फिल्मों का प्रचार प्रसार बहुत कम होता है। ‘भगवान भरोसे’ भी कुछ इसी तरह है, जिसे शिलादत्य वोरा ने बनाया है। इस फिल्म में विनय पाठक के अलावा कोई ऐसा नहीं है जिसकी फिल्मी दुनिया में बड़ी पहचान हो। फिर भी ये फिल्म एक अच्छे कथ्य की वजह से उल्लेखनीय है।
अक्सर हम या हमारे राजनैतिक दलों के लोग ये नहीं सोचते कि हम अपने गांव या देश में धर्म के नाम पर जो राजनैतिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं। उसका बच्चों या बालमन पर क्या और कितना विनाशकारी असर हो रहा है, ये फिल्म यहीं बताती है। ‘भगवान भरोसे’ की कहानी उस दौर की है जब भारत में टेलीविजन पर महाभारत धारावाहिक शुरू हुआ था।
तब लोग हर रविवार को सुबह टीवी स्क्रीन के सामने आ जमते थे। धार्मिक निष्ठा के साथ इस धारावाहिक को देखा जाता है। एक दूरस्थ गांव का सात-आठ साल का लड़का भोला (सत्येंद्र सोनी) भी अपने दोस्तों, परिवार वालों और पड़ोसियों के साथ इसे देखता है। उसके बालमन पर इसका असर पड़ता है और वो खुद और अपने एक साथी के साथ बांस के बने तीर धनुष चलाने लगता है और उसे लगता है कि इस सबसे अपने आसपास के असुरों को
मार देगा।
असुर कौन? बगल के गांव वाले अल्पसंख्यक। भोला को पतंगबाजी का भी शौक है। ये वही समय है जब भारत में हिंदुवादी राजनीति उभर रही थी। इस सबका नकारात्मक प्रभाव भोला पर क्या होता है यही कहती है ये फिल्म। ये अपने तईं शिक्षा के महत्व को भी रेखांकित करती और साथ ही गांवों और कस्बों की शिक्षा व्यवस्था में वैज्ञानिक चेतना की कमी की तरफ भी संकेत करती है। फिल्म की पटकथा थोड़ी ढीली है। संवाद भी कुछ जगहों पर लचर हो गए हैं।