निर्देशक- करण अंशुमान
कलाकार- रितेश देशमुख, पुलकित सम्राट, चंदन रॉय सान्याल, कुमुद मिश्रा, जैक्लीन फर्नांडीस

हास्य और हास्यास्पद के बीच की दूरी ज्यादा नहीं है और लगता है कि ‘बैंगिस्तान’ इसी बात को फिर से साबित करने के लिए बनाई गई है। माना कि करण अंशुमान युवा निर्देशक हैं। लेकिन आतंकवाद जैसे विषय को कॉमेडी में तब्दील करने के लिए काफी मशक्कत करनी चाहिए जो उन्होंने नहीं की है।

आकस्मिक नहीं कि ‘बैंगिस्तान’ जैसे काल्पनिक देश पर बनी यह फिल्म पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात में प्रतिबंधित हो गई है। हो सकता है इन देशों के सत्ता प्रतिष्ठान के अपने पूर्वग्रह हों पर ये भी सच है कि ये प्रतिबंध भी इसके लिए भारत में सकारात्मक प्रचार का काम करेंगे जिससे इसे कुछ अतिरिक्त दर्शक मिल जाएं।

रितेश देशमुख ने इसमें हाफिज बिन अली का किरदार निभाया है और पुलकित सम्राट ने प्रवीण चतुर्वेदी का। दोनों धार्मिक स्तर पर उग्रवादी हैं और पोलैंड पहुंचते हैं। दोनों का मकसद है एक आतंकी वातावरण पैदा करने का। इसलिए दोनों अपने से इतर धर्मवाले का भेष धारण कर लेते हैं। यानी हाफिज हिंदू का बाना धारण कर लेता और प्रवीण मुसलिम का। लेकिन जरा ठहरिए, यह मत समझ लीजिए कि इसमें बहुत मारकाट है।

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दरअसल निर्देशक का लहजा मजाकिया है और ऐसे मसले को कोई इस जोकराना अंदाज में पेश करता है जो आशंका बनी रहती है कि आप ‘शोले’ बनाने चलें और बन जाए ‘राम गोपाल वर्मा की आग’। फिल्म की पूरी पटकथा इतनी लचर है कि कई चरित्रों का व्यक्तित्व नहीं खुलता। रितेश देशमुख की कॉमिक टाइमिंग बहुत अच्छी मानी जाती है। लेकिन वे भी शुरू से आखिर तक कामचलाऊ दिखते हैं। पुलकित सम्राट का भी वही हाल है।

जैक्लीन फर्नांडीस की कैमियो भूमिका है। कुमुद मिश्रा दोहरी भूमिका में हैं और दोनों में एक समान हैं- यानी बेअसर। निर्देशक ने विश्व सिनेमा की अपनी जानकारी दिखाने की कोशिश की है और हांगकांग के फिल्मकार ओंग कार वाई और फिल्म सिटिजम केन के संदर्भ भी यहां दिखते हैं। (एक चरित्र का नाम ओंग कार वोंग रखा गया है और एक जगह पोलैंड में एक टैक्सी ड्राइवर अपने को सिटिजन हुसैन कहता है) पर ऐसे लटके-झटके फिल्म को सुगठित नहीं बनाते। फिल्म का अंत भी अजीब हो गया है और भाषणबाजी से भरपूर भी।