फिल्म- अय्यारी

निर्देशक- नीरज पांडे, कलाकार-सिद्धार्थ मल्होत्रा, मनोज बाजपेयी, रकुलप्रीत सिंह, पूजा चोपड़ा, आदिल हुसैन, अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह

इस फिल्म को देखने के बाद जो पहली बात दिमाग में आती है कि वह यह कि फिल्म कहां और कैसे भटक गई? बतौर निर्देशक नीरज पांडे अपनी फिल्मों में शुरू से आखिर तक पकड़ बनाए रखते रहे हैं। ‘ए वेडनस्डे’, ‘स्पेशल छब्बीस’ और ‘बेबी’ इसका उदाहरण हैं। लेकिन इस फिल्म में वे गच्चा खा गए। इस फिल्म के बारे में प्रचारित किया गया था यह मुंबई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी वाले मसले पर बनी है, जिसके बारे में आरोप लगे कि सेना की जमीन पर बनी इस हाउसिंग सोसायटी में नेताओं और नौकरशाहों ने फ्लैट लिए। उस लिहाज ये मौजूं विषय था फिल्म बनाने के लिए। लेकिन नीरज पांडे की इस फिल्म में हथियारों की खरीद-फरोख्त अहम मसला है। हालांकि आदर्श हाउसिंग सोसायटी का घोटाला भी इसमें नजर आता है पर भर्ती के तौर पर। फिल्म कुछ-कुछ बेमेल विवाह की तरह हो गई है। यहीं निर्देशक महोदय गच्चा खा गए। बेहतर होता कि वे दोनों मसलों को अलग-अलग रखते।

फिल्म मुख्य रूप से दो किरदारों पर केंद्रित है- एक मेजर जय बख्शी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और दूसरा कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी)। दोनों सेना के खुफिया विभाग के अधिकारी हैं। अभय सिंह एक तरह से जय बख्शी का गुरु है, लेकिन गुरु गुड़ बना रहता है और चेला शक्कर बन जाता है। सो चेला जय बख्शी शक्कर बनने की राह पर चल निकलता है। मामला हथियारों की खरीदारी का है। जय बख्शी लंबा हाथ मारना चाहता है। पर कोई गुरु अपने चेले को शक्कर बनते तो नहीं देख सकता। सो गुरु अभय सिंह अपने इस मिशन में लग जाता है कि चेले को अपने मंसूबे में सफल न होने दिया जाए। फिर क्या, चेला आगे-आगे और गुरु पीछे-पीछे। इसके पीछे कई देशों की यात्रा कर लेते हैं दर्शक, हॉल में बैठे-बैठे। कौन जीतेगा? गुरु या चेला। और किसका असली मकसद क्या है? रहस्यों के आवरण धीरे-धीरे खुलते हैं। लेकिन जिस तरह से खुलते हैं उसमें थ्रिल कम बोरियत अधिक है।

फिल्म एक बहुत अच्छी थ्रिलर हो सकती थी। और रक्षा क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार की तरफ संकेत करनेवाली भी, लेकिन हो नहीं सकी। असल कारण यह है कि निर्देशक तय नहीं कर पाया कि क्या बनाया जाए। दूसरा कारण है कि सिद्धार्थ मल्होत्रा मनोज बाजपेयी के आगे कमजोर पड़ गए हैं। हालांकि बात सिर्फ अभिनय की नहीं है। फिल्म की पटकथा जिस तरह लिखी गई है, उसमें भी मनोज का किरदार अधिक सशक्त है और सिद्धार्थ का कमजोर। वैसे भी, सिद्धार्थ मल्होत्रा अपनी पिछली कुछ फिल्मों में उभर नहीं पाए हैं। जैसे ‘अ जेंटलमैन’, ‘बार बार देखो’ और ‘इत्तेफाक’। और ऐसा लगता है कि यह मौका भी उनके हाथ से गया।

फिल्म में रोमांटिक पहलू भी है, सिद्धार्थ मल्होत्रा और रकुलप्रीत सिंह के बीच। पर वो भी ठीक से उभरता नहीं है। फिल्म के गाने भी लोगों की जुबान पर चढ़नेवाले नही हैं। हां, फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है और कुछ दृश्य तो बहुत अच्छे से फिल्माए गए हैं। नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर और आदिल हुसैन अपनी-अपनी जगह जमे हैं। ‘अय्यार’ शब्द हिंदी के उस आरंभिक दौर में प्रचलित रहा है जब देवकी नंदन खत्री ने ‘चंद्रकांता’ और उसकी शृंखला के उपन्यास लिखे। नीरज की ये फिल्म उसी की याद दिलाती है। अय्यार जासूस भी था और अपनी तरह का नायक भी, प्रेमी भी। पर वह देवकीनंदन खत्री वाला अय्यार इस फिल्म में नहीं दिखा।