एआर कारदार (2 अक्तूबर, 1904-22 नवंबर, 1989)
पहले लाहौर में फिल्मों के पोस्टर बनाने, फिर कोलकाता में फिल्म निर्देशन करने के बाद 1937 में अब्दुल रशीद कारदार मुंबई में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने कानूनी पचड़े में फंसी एक कंपनी खरीदी और परेल में तकनीकी तौर पर तब का सबसे विकसित स्टूडियो बनाया। उनका दबदबा ऐसा था कि हर हुनरमंद कारदार स्टूडियो की फिल्म करने के लिए लालायित रहता था। 1937 में मुंबई आकर 60 रुपए महीने में खेमचंद्र प्रकाश के सहायक के रूप में काम करने वाले संगीतकार नौशाद को 1942 की ‘नई दुनिया’ में कारदार ने संगीतकार के रूप में मौका दिया। नौशाद कारदार स्टूडियो का अभिन्न हिस्सा बन गए। कारदार ने नौशाद से अनुबंध किया। 500 रुपए महीने में संगीत देने का। हर साल सौ रुपए तनख्वाह में बढ़ाने और खाली वक्त में बाहर की फिल्मों में काम करने की छूट भी अनुबंध में दे दी गई।
नौशाद ने 1942 से 1949 तक कारदार के लिए ‘शारदा’, ‘नमस्ते’, ‘शाहजहां’, ‘दर्द’, ‘दिल्लगी’, ‘दुलारी’, ‘दास्तान’ जैसी दर्जन भर से ज्यादा हिट फिल्में बनार्इं। वितरक और फाइनेंसर थैली खोले कारदार के आगे लाइन लगाने लगे। कारदार नौशाद के हुनर की कदर करते थे और उनके कामकाज में टांग नहीं अड़ाते थे। कारदार के साढ़ू भाई (कारदार की पत्नी बहार और महबूब खान की पत्नी सरदार अख्तर बहनें थीं) फिल्मकार महबूब खान ने भी अपनी फिल्मों (अनमोल घड़ी, एलान, अंदाज, आन, मदर इंडिया) में भी नौशाद का खूब इस्तेमाल किया।
1949 में राज कपूर की ‘बरसात’ के गानों की लोकप्रियता के बाद फिल्म संगीतकारों की पूछ-परख बढ़ी और उनका मेहनताना आसमान छूने लगा। उधर नौशाद की तनख्वाह जब पांच सौ रुपए महीने से हजार तक पहुंची, दूसरे संगीतकार एक फिल्म के हजारों ले रहे थे। नौशाद ने भी तय किया कि अब अपने हुनर का मोल तय करने का समय आ गया।
लिहाजा 1951 में नौशाद ने कारदार से कहा कि हुजूर फिल्मों में संगीत तो देंगे, मगर कमाई में आधा हिस्सा लेंगे। कारदार उन्हें देखते रह गए मगर कारदार के फाइनेंसरों को नौशाद की शर्त मंजूर थी। उनका मानना था कि नौशाद के संगीत से ही तो फिल्में हिट हो रही और पैसा बरस रहा है मगर कारदार इसे अपनी हेठी समझ रहे थे। नौशाद अपने हुनर का मोल समझ चुके थे इसलिए उन्होंने 1951 में दिलीप कुमार की ‘दीदार’ (जिसके गानों के बाद दिलीप कुमार ‘ट्रेजिडी किंग’ बन गए) लाख रुपए में साइन कर इसकी शुरुआत कर दी थी।
कारदार को ठेस लगी और 1953 में उन्होंने अगली फिल्म ‘दिल ए नादां’ में नौशाद के असिस्टेंट गुलाम मोहम्मद को संगीतकार ले लिया। उसके बाद ओपी नैयर, सी रामचंद्र, वसंत देसाई से काम चलाया। मगर नौशाद वाली बात नहीं आई। आखिर 1966 में ‘दिल दिया दर्द लिया’ उनको नौशाद की शर्तों पर करनी पड़ी, जिसके गाने (दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया, कोई सागर दिल को बहलाता नहीं, रसिया तू बड़ा बेदर्दी) खूब लोकप्रिय हुए।
