आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ रिलीज होते ही भावनाएं आहत होने और भड़कने का वही सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया जो पिछले कुछ वर्षों से लगभग हर बड़ी और चर्चित फिल्म या किताब के रिलीज होने पर होता रहा है। कहीं एफआइआर हुई है, किसी ने याचिका दायर कर दी है तो जगह-जगह पोस्टर फाड़ने और तोड़फोड़ का सिलसिला चलता रहा है।

किसी राजनीति, विचार, संस्था या कलाकृति के बारे में असहमति या आलोचना व्यक्त करना, सवाल खड़े करना या विपरीत विचार रखना एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज का आवश्यक गुण होता है। मगर हमारे समाज में हर असहमति और आलोचना के प्रति असहिष्णुता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। कोई लेख, कार्टून, किसी किताब में आया एक पैराग्राफ, किसी फिल्म का दृश्य लोगों को इस कदर ‘आहत’ कर देता है कि वे फट से समाज के दूसरे हिस्सों को सशरीर आहत करने पर आमादा हो जाते हैं। इस खतरनाक प्रवृत्ति के पीछे सबसे बड़ा कारण वोटों की राजनीति नजर आता है जो मूलभूत मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए हमेशा भावनात्मक मुद्दों की खोज में रहती है और छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना कर लोगों की भावनाओं को भड़काया जाता है।

‘पीके’ फिल्म में जो कुछ दिखाया गया वह कितना सही, गलत या असरदार है, इसे फिलहाल छोड़ दें मगर जिस तर्क के आधार पर इसका विरोध किया जा रहा है अगर उसे ही मानें तब तो बुद्ध, रैदास, तुकाराम, कबीर, दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, राजा राममोहन राय, राहुल सांकृत्यायन से लेकर भगतसिंह तक- सभी पर भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया जा सकता है और उनकी किताबें जलाई जा सकती हैं। धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने वाले हर समाज सुधारक या धर्मसुधार आंदोलन ने शुरुआत में समाज के बड़े हिस्से की मान्यताओं पर चोट की, कभी हल्की, तो कभी कठोर। यही तर्क चलता तब तो बाल विवाह, सती प्रथा, छुआछूत, विधवा विवाह, लड़कियों की शिक्षा, परदा प्रथा जैसे किसी भी मसले पर कोई प्रगति ही न हुई होती। इस तरह की घटनाएं हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमारे समाज में राजनीति के ऊपर धर्म किस तरह हावी होता जा रहा है।

इसके अलावा किसी भी तरह का विवाद चर्चा और सुर्खियों में आने का सबसे सुगम शॉर्टकट भी बन गया है। समाज में ख्यात और कुख्यात के बीच का अंतर लगातार कम होता जा रहा है। ‘बिग बॉस’ जैसे शो इसके उदाहरण हैं जहां चोर, डकैत से लेकर पत्नी को पीटने वालों तक को ‘सेलिब्रिटी’ का दर्जा दे दिया जाता है। यह अकारण नहीं है कि ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’ की तर्ज पर सुर्खियों में रहने के लिए ऊटपटांग हरकतें करने वालों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। कभी-कभी तो कुछ छुटभैये नेता और अभिनेत्रियां लोगों को आश्चर्यचकित ही कर देते हैं। विवाद से प्रचार और मुनाफे के रास्ते भी खुल जाते हैं।

यह भी एक कारण है कि खासकर हिंदी सिनेमा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धार्मिक मान्यताओं की पड़ताल करती फिल्मों का नितांत अभाव है। दूसरे, यह एक विचित्र संयोग दिखता है कि धार्मिक भावनाओं के आहत होने को मुद्दा बनाने वाले लोग धर्म को कलंकित करने वाले तमाम पाखंडी बाबाओं के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। धर्म के नाम पर चलने वाले कारोबार और अपराध, बच्चों और स्त्रियों का क्रूर शोषण, करोड़ों लोगों को जहालत और कूपमंडूकता में बनाए रखना- ये मुददे कभी किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत क्यों नहीं करते?

 

’सत्येंद्र सार्थक, नौसड़, गोरखपुर

 

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