रवींद्र त्रिपाठी
दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत और अक्षय कुमार जैसे सितारों से सजी साल की सबसे महंगी और बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘2.0’ रिलीज हो चुकी है। यह फिल्म साल 2010 में आई निर्देशक शंकर की फिल्म ‘रोबोट’ का सीक्वल है। उस फिल्म की तरह ‘2.0’ में भी रजनीकांत ने डॉक्टर वसीकरण का किरदार निभाया है और उनके साथ उनका बनाया हुआ रोबोट चिट्टी भी है। फिल्म की कहानी कुछ इस तरह शुरू होती है कि एक दिन शहर में सभी लोगों के मोबाइल अचानक उड़कर गायब होने लगते हैं और कोई अदृश्य ताकत उन्हें अपनी ओर खींचकर गायब करने लगती है। ऐसे कई अजीब वाकये होते हैं और हर तरफ अफरा-तफरी मच जाती है। प्रशासन को भी समझ नहीं आता कि क्या करे? फिर एक एक मोबाइल टावर भी गिरने लगते हैं। मोबाइल सप्लाई करने वाले ट्रक भी रास्ते में ही चकनाचूर होने लगत हैं। लोगों की जिंदगी थम-सी जाती है और किसी को कुछ समझ में नहीं आता कि आखिर हो क्या रहा है। आखिरकार डॉ वसीकरण को ही यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है कि वो पता लगाएं कि ऐसा क्यों हो रहा है। वसीकरण अपनी सहयोगी नीला (एमी जैक्शन), जो दरअसल एक मानव रोबोट ही है, के सहयोग से यह पता लगाने में कामयाब हो जाता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? वह अपने डीएक्टीवेट हो चुके रोबोट चिट्टी को एक बार फिर सक्रिय करता है। इसके बाद फिल्म में पक्षीराजन यानी अक्षय कुमार की एंट्री होती है। पक्षीराजन पक्षियों को प्यार करने वाला शख्स है और मोबाइलों के गायब होने के पीछे उसी का हाथ है। पक्षीराजन ने आखिर ऐसा क्यों किया, कहानी इसी पर आधारित है।
‘रोबोट’ की तरह ‘2.0’ भी एक साइंस फिक्शन फिल्म है। फिल्म का तकनीकी पक्ष काफी मजबूत है। फिल्म का वीएफएक्स यानी विजुअल इफेक्ट भी कमाल का है और हॉलीवुड फिल्मों जैसा अहसास कराता है। अक्षय कुमार का लुक और उनका खलनायक का किरदार कमाल का है। राक्षसी चेहरे वाले उनके किरदार को तैयार करने में अच्छी-खासी मेहनत की गई है और यह परदे पर दिखती भी है। फिल्म के शुरुआती दृश्यों में अक्षय एक झोलाछाप सामाजिक कार्यकर्ता बने नजर आते हैं जो पक्षियों की सुरक्षा में जुटा रहता है। मध्यांतर के पहले तक फिल्म हंसी-मजाक से भरी है और लुभाती भी है, लेकिन उसके बाद धीर-धीरे यह सुस्त पड़ने लगती है।
‘2.0’ आधुनिकीकरण और तकनीक पर सवाल भी उठाती है और दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या तकनीक का समाज या पर्यावरण पर क्या असर पड़ रहा है। फिल्म बताती है कि मोबाइल टॉवरों की वजह से जो विकिरण यानी रेडिएशन पैदा होता है, वह पक्षियों के लिए खतरनाक होता है और वे जल्द ही मर जाते हैं। ऐसे कई और सवाल भी फिल्म में उभरते हैं। इस तरह निर्देशक का पूरा जोर वैज्ञानिक उन्नति और पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने पर है। अंत में बात करें रजनीकांत की तो, उनके फैंस को तो यह फिल्म पसंद आनी ही है, लेकिन ‘रोबोट’ को पसंद करने वाले हिंदी भाषी दर्शकों भी यह फिल्म पसंद आएगी। कमजोर पक्ष इसका स्क्रीनप्ले है। ढाई घंटे लंबी यह फिल्म कहीं-कहीं उबाऊ होने लगती है। अगर इसकी लंबाई घटाकर दो घंटे कर दी जाती तो बेहतर होता।