संसदीय चुनाव की डुगडुगी काफी तेजी से बज रही है। ऐसे मे चंबल में डाकू फरमानों की चर्चा किये बिना नहीं रहा जा सकता है। मुहर लगाओ…वरना गोली खाओ छाती पर…। कभी चंबल घाटी में चुनाव के दौरान ऐसे नारों की गूंज होती थी। लेकिन आज इस तरह के नारे इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए हैं। क्योकि खूंखार डाकुओं के खात्मे ने इन फरमानों पर विराम लगा दिया है।
इटावा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक संतोष कुमार मिश्र बताते हैं कि चंबल का इतिहास इस बात की गवाही देता है कि यहां के कई चुनाव खूंखार डाकुओं के फरमानों के कारण प्रभावित हुए हैं, इसलिए पुलिस प्रशासन की पूरी निगाह हमेशा रहती आई है और चुनाव के दरम्यान खास करके रहती भी है। उन्होंने कहा कि बेशक आज की तारीख में चंबल से डाकुओं का सफाया पूरी तरह से कर दिया गया है लेकिन पुराने डाकुओं के नाते रिश्तेदार और उनकी करीबियों की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती है।
फरमानों में दिखा जातीय असर
डाकुओं के फरमान की शुरुआत चंबल घाटी में जातीय आधार पर पंचायत चुनाव में 1990 से शुरू हुई। उसके बाद इसका प्रभाव बढ़ कर विधानसभा से होते हुए लोकसभा चुनाव तक आ पहुंचा। 1996 में लखना विधानसभा सीट से चुनाव में मैदान में उतरी सपा प्रत्याशी के पक्ष में डाकू रज्जन गुर्जर आदि डकैतों ने फरमान पहली बार जारी किया। इसका प्रभावी असर देखने को मिला और सपा प्रत्याशी की जीत हुई। सपा प्रत्याशी से पराजित हुए भाजपा प्रत्याशी बताते हैं कि प्रचार के दौरान दर्जनों गांवों के ग्रामीणों ने इस बात की पुख्ता शिकायत करके उनको अवगत कराया कि फरमान के कारण सपा के पक्ष में मतदान करना उनकी मजबूरी बन गई है। फरमान का असर इस कदर हुआ कि रात के समय डर के वजह से प्रचार कर पाना संभव नहीं हो सका। नतीजतन पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसकी शिकायत आयोग से भी की गई लेकिन पुलिस मतदाताओं पर अपनी पकड़ नहीं बना पाई और फरमान हावी रहे।
फक्कड़ ने शुरू किया था फरमान
1998 के लोकसभा में भाजपा के टिकट पर उतरी प्रत्याशी के पक्ष में उस समय के कुख्यात डाकू रामआसरे उर्फ फक्कड़ ने चंबल इलाके के कई मतदान केंद्र पर बूथ लूटे थे। लेकिन जिन शर्तों पर फक्कड़ ने भाजपा प्रत्याशी की मदद की वे चुनाव जीतने के बाद कामयाब नहीं हुर्इं। बाद में फक्कड़ ने अपने गिरोह के करीब नौ साथियों के साथ 2004 मे मध्य प्रदेश के भिंड में समर्पण कर दिया था।
1991 के बाद हुआ फरमानों का असर
1991 में हुए विधानसभा चुनाव में दस्यु रामआसरे फक्कड़ ने एक राजनीतिक दल के समर्थन में प्रचार किया। इतना ही नहीं चुनावी रंजिश ने बीहड़ की रंजिश को भी जन्म दिया। दस्यु लालाराम और फक्कड़ के बीच टकराव हुआ। ये दोनों बड़े गिरोह जब आपस में टकराए तो चंबल की वादियों में तमाम नए दस्यु गिरोह का जन्म हो गया। ये सभी गिरोह अपने-अपने क्षेत्र में इतने प्रभावी हो गए कि लोगों को फरमान जारी करने लगे। राजनीतिक लोग भी इन डकैतों की मदद लेने लगे और अपने पक्ष में फरमान जारी करवाने की जुगत भिड़ाने लगे।
1998 में डाकुओं ने निकाल ली थी आंखें
साल 1998 में राम आसरे उर्फ फक्कड़ और कुसमा नाइन ने फरमान न मानने के एवज में भरेह थाना क्षेत्र में मल्लह बिरादरी के संतोष और राजबहादुर की आंखें निकालकर के क्रूर सजा दी थी। यह चंबल घाटी में एक ऐसी सजा थी जिसकी कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती है । वैसे संतोष राज बहादुर औरैया जिले के असेवा गांव के रहने वाले थे लेकिन फरमान न मानने के एवज में दोनों को घर से उठाकर के 10 किलोमीटर दूर ले जाकर के आंखें निकाल कर के क्रूरतम सजा दी गई।
200 गांवों में रहा है असर
इतिहास पर नजर डाले तो बीहड़ के 200 गांव एक अर्से तक दस्यु प्रभावित रहे हैं। पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों तक यहां डाकुओं के फरमान पर लोग वोट डालने को विवश हुए। दो दशक के दौरान कई डकैत या तो ढेर कि गए या आत्मसमर्पण कर जेल पहुंच गए।
डाकुओं का था कभी बोलबाला
श्रीराम, लालाराम, निर्भय गुर्जर, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसमा नाइन, फूलन देवी, सलीम उर्फ पहलवान, रज्जन गुर्जर, गंभीर सिंह, चंदन, जगजीवन परिहार ऐसे नाम हैं जो बीहड़ वासियों के लिए वर्षों दहशत का पर्याय रहे।
पंचायत चुनाव में भी रहा बोलबाला
क्वारी नदी की गोद में बसे विंडवा कला गांव में दस्यु सलीम गुर्जर ने अपनी बहन को 1995 में प्रधान बनवाया तो 2000 में अपने बहनोई को प्रधानी का ताज पहनवाया। 2005 के चुनाव में जगजीवन परिहार ने चौरेला से अपने एक परिवारी को चुनाव जितवाया तो कुर्छा, कुंवरपुरा, विडौरी, नींवरी, हनुमंतपुरा सहित कई पंचायतों में दस्यु निर्भय गुर्जर के लोग चुनाव जीत गए। इतना ही नहीं पंचायतों के चुनाव में मात्र 7, 11 और 21 वोटों पर चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर दी गई। इतना ही नहीं क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने गए एक जन प्रतिनिधि सत्यनारायण की तो निर्भय गुर्जर ने गांव आकर उसकी नाक इसलिए काट ली क्योंकि उसने चुनाव लड़ा और स्कूल के लिए जमीन दी। चकरनगर ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर वर्ष 2000 से 2010 तक निर्विरोध चुनाव होता रहा।