उत्तराखंड का गढ़वाल मंडल खासकर टिहरी और उत्तरकाशी जनपदों की भगीरथी घाटी एक जमाने में लालघाटी के नाम से प्रसिद्ध थी। इस देवभूमि में भगीरथी की धारा के साथ वामपंथी विचारधारा की धारा भी प्रवाहित होती थी। यहां वामपंथ का बहुत प्रभाव था। साठ के दशक में वामपंथियों ने इस इलाके में अपनी गहरी छाप छोड़ी थी। टिहरी जिला तो वामपंथियों का गढ़ था।
60 से 80 के दशक में उत्तर प्रदेश विधानसभा में गढ़वाल मंडल से कई विधायक वामपंथियों ने दिए थे। टिहरी जिले की प्रताप नगर घाटी को लोग लालघाटी के नाम से जानते थे। पौड़ी, टिहरी, देहरादून और नैनीताल जिलों में तब संस्कृति और कला क्षेत्र से जुड़ी युवा पीढ़ी वामपंथी विचारधारा से बहुत प्रभावित थी और उन्होंने यहां पर इप्टा का गठन किया था। यह 4 जिले वामपंथी विचारधारा से जुड़े नाट्य कलाकारों की उर्वरा भूमि माने जाते थे और यहां पर रंगमंच का चलन 60 से 80 के दशक में चरम पर था।
एक जमाने में उत्तराखंड ने कामरेड गोविंद सिंह नेगी, विद्यासागर नौटियाल, पीसी जोशी, हुकम सिंह भंडारी, बरफ सिंह रावत, रघुनाथ सिंह राणा ,कामरेड लीलाधर पाठक, प्रेमानंद पांडे, मनोहर लाल, कामरेड महेंद्र, कामरेड पीसी पांडे, सत्यनारायण सिंह, दया किशन पांडे, नागेंद्र सकलानी, मोलू भरदारी, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, गोविंद सिंह नेगी, बच्ची राम कौंसवाल, कमला राम नौटियाल जैसे कई जुझारू वामपंथी विचारधारा वाले जन नेता दिए जिन्होंने कई मजदूर किसान और छात्र और जन आंदोलनों का कुशल नेतृत्व किया।
पहाड़ों में हक हक्कू की लड़ाई और चिपको आंदोलन की विचारधारा भी वामपंथियों की विचारधारा की देन थी। टिहरी को राजशाही से मुक्ति दिलाने के आंदोलन में वामपंथियों की ऐतिहासिक और निर्णायक भूमिका थी और कई वामपंथियों ने इस आंदोलन में शहादत दी थी। गढ़वाल क्षेत्र में वामपंथी दलों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अच्छा खासा प्रभाव था वामपंथी दलों ने संघर्षों के बूते ही क्षेत्र में अपना जनाधार बनाया था। इस पर्वतीय क्षेत्र में वामपंथियों ने जनता के संघर्षों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और शहादत दी।
80 के दशक के बाद कांग्रेस का उत्तराखंड में दबदबा कायम हुआ और 90 तक कांग्रेस का उत्तराखंड में वर्चस्व रहा। 90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के कारण पूरा उत्तराखंड भगवा रंग में रंग गया और यहां भाजपा का वर्चस्व हो गया। 1994 में उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन अपने चरम पर था क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल के साथ इस आंदोलन में वामपंथियों ने भी अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराई थी।
9 नवंबर 2000 उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई। फरवरी 2002 में उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव हुए जिसमें वामपंथियों का पूरी तरह सफाया हो गया और तब से अब तक 21 साल में वामपंथी इस राज्य में अपनी जड़ें नहीं जमा पाए। कभी जो टिहरी और उत्तरकाशी लालघाटी के नाम से प्रसिद्ध थी वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी फिर से अपनी जड़ें जमाने में नाकाम रही और यह क्षेत्र दो राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व का क्षेत्र बन कर रह गया। वामपंथियों का जनाधार सिमट गया। वामपंथियों की हालत यह है कि इन दलों को 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ाने के लिए उम्मीदवार तक नहीं मिल पाते हैं।
2002 के पहले विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों ने 14 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। जिनको केवल एक फीसद वोट ही मिल पाए। 2007 विधानसभा चुनाव में वामपंथियों ने 16 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे और वोट फीसद घटकर 0.59 फीसदी रह गया। 2012 में वामपंथी दलों ने 16 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, इनको केवल 0.58 फीसद वोट हासिल हुए।
2017 में वामपंथी दलों ने केवल 12 उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में उतारे थे और जो केवल एक फ यहां वामपंथी दलों के नेता आपस में कई गुटों में बटे रहे और यहां वामपंथी संगठनों के नाम पर कई संगठन बने परंतु वे अपनी जनता में पैठ नहीं बना पाए। वैसे मौजूदा दौर में वामपंथी नेताओं में विजय रावत, राजेंद्र नेगी, राजा बहुगुणा, इंद्रेश मैखुरी और समर भंडारी जैसे राजनीति की गहरी जानकारी रखने वाले नेता सक्रिय है परंतु वह भी उत्तराखंड में वामपंथी जड़ों को फिर से जमाने में नाकाम से दिखाई देते हैं।
वामपंथी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक रतन मणि डोभाल का कहना है कि उत्तराखंड क्रांति दल की राजनीतिक गलती का खामियाजा उत्तराखंड की जनता के साथ वामपंथियों को भी भुगतना पड़ा है। जब राज्य आन्दोलन निर्णायक दौर में पहुंच गया था और यह तय हो गया था कि अब राज्य बनने से कोई रोक नहीं सकता। तब संघ, भाजपा तथा कांग्रेस ने आंदोलन में राजनीतिक घुसपैठ की।
नतीजा यह हुआ कि उक्रांद की जगह संयुक्त संघर्ष समिति ने ले ली और जब राज्य बना तो राज्य उसी शासक वर्ग को सौंप दिया गया जिसकी नीतियों के खिलाफ राज्य आंदोलन शुरू हुआ था। वामपंथी इस कमजोरी को भांप गए थे लेकिन उक्रांद का नेतृत्व कुछ सुनने को तैयार नहीं था और जिसका वामपंथ को डर था वही हुआ। उक्रांद आज भी गलती मानने को तैयार नहीं है। जिसका सबसे ज्यादा नुकसान वामपंथ को हुआ है।