पहले चरण की 58 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को इस बार अपने प्रदर्शन को दोहराने की राह आसान नहीं लग रही है। भाजपा ने पिछले चुनाव में यहां 58 में से 53 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि सपा केवल दो सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई थी। लेकिन इस बार सपा-रालोद गठबंधन भाजपा को यहां कड़ी चुनौती देता नजर आ रहा है।
चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर जयवीर राणा का कहना है कि गत विधानसभा चुनाव में अखिलेश सरकार के शासनकाल में बिगड़ी कानून व्यवस्था को लेकर गहरी नाराजगी थी। कैराना पलायन जैसे मुद्दे अखिलेश के लिए मुसीबत का सबब बने हुए थे। लेकिन इस बार यहां जातीय समीकरण बहुत असर डालेगा। किसान आन्दोलन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में जातीय समीकरण नए सिरे से बनते नजर आ रहे हैं।
प्रोफेसर जयवीर का कहना है कि आज गांवों में बेरोजगारी को लेकर युवा रायशुमारी कर रहे हैं। साथ ही मंहगाई पर भी चर्चा होती है। किसान गन्ने का भुगतान के साथ ही धान की बिक्री में हुई परेशानी को भी लेकर बात कर रहा है। इन बातों को नतीजा भी है कि गांवों में भाजपा के विधायक व नेताओं का विरोध आज भी जारी है। इसी के साथ गांवो में आवारा पशु भी एक अहम मुद्दा बना है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट मतदाताओं की संख्या 17 फीसद है। 25 फीसद मुसलिम मतदाता हैं। दलित मतदाता भी 20 से 22 फीसद हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय अहम भूमिका निभाता रहा है। साथ ही चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की ताकत भी रखता है। पश्चिम रालोद का गढ़ माना जाता रहा है लेकिन दो लोकसभा चुनाव व एक विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां बेहतर प्रदर्शन करते हुए रेकार्ड जीत दर्ज की थी। सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां के जाट मतदाताओं ने 91 फीसद वोट किया था। इसी का नतीजा यह भी रहा कि चौधरी अजीत सिंह व जयंत चौधरी चुनाव हार गए। लेकिन इस बार हालात कुछ बनते-बिगड़ते नजर आ रहे हैैं।